- भारत आज अपने इतिहास के एक अत्यंत महत्वपूर्ण चरण में खड़ा है। एक ओर वैश्विक अनिश्चितता, क्षेत्रीय सुरक्षा चुनौतियाँ और आर्थिक बदलाव हैं, तो दूसरी ओर तीव्र राजनीतिक ध्रुवीकरण।
- ऐसे समय में सार्वजनिक विमर्श अक्सर चयनात्मक स्मृति और आरोप-प्रत्यारोप से प्रभावित हो जाता है।
- दुर्भाग्यपूर्ण सच्चाई यह है कि जिन राजनीतिक शक्तियों ने संविधान और लोकतंत्र को कमजोर किया, भ्रष्टाचार से देश को खोखला किया और राष्ट्रीय हितों से समझौता किया—वही आज परिणाम देने वाली सरकार पर सबसे अधिक आरोप लगा रही हैं।
अब समय है कि नागरिक कथाओं नहीं, परिणामों के आधार पर मूल्यांकन करें।
⚖️ एक असहज सत्य: संस्थाएँ और अर्थव्यवस्था कैसे कमजोर की गईं
भारत की समस्याएँ एक दिन में पैदा नहीं हुईं। दशकों तक शासन में गंभीर संरचनात्मक कमियाँ रहीं:
- संवैधानिक संस्थाओं का दुरुपयोगऔर राजनीतिक हितों के लिए उनका क्षरण
- लोकतंत्र को जवाबदेही के बजाय वोट-बैंक की राजनीति तक सीमित करना
- व्यापक भ्रष्टाचार और घोटाले, जिनसे सार्वजनिक धन और विश्वास दोनों को नुकसान पहुँचा
- रणनीतिक निर्णयों में कमीशन, दलाली और विदेशी हितों का प्रभाव
- घरेलू विनिर्माण के बजाय आयात को बढ़ावा, जिससे रोजगार और उद्योग प्रभावित हुए
- लाइसेंस राज की मानसिकता, जिसने उद्यमिता, नवाचार और प्रतिस्पर्धा को दबाया
इसके परिणाम स्पष्ट थे:
- धीमी आर्थिक वृद्धि
- कमजोर अवसंरचना
- बेरोजगारी और अवसरों की कमी
- राजकोषीय दबाव और नीतिगत जड़ता
- विदेशी आपूर्ति श्रृंखलाओं पर अत्यधिक निर्भरता
- अर्थव्यवस्था का अस्थिरता की ओर बढ़ना
ये तथ्य कल्पना नहीं, बल्कि दस्तावेज़ीकृत वास्तविकताएँ हैं।
📉 जड़ता से संरचनात्मक सुधार तक: अतीत से स्पष्ट विच्छेद
- इस दुष्चक्र को तोड़ने के लिए लोकप्रियता नहीं, राजनीतिक साहस की आवश्यकता थी।
पिछले ग्यारह वर्षों में शासन की दिशा में स्पष्ट परिवर्तन हुआ:
- अल्पकालिक तुष्टिकरण के बजाय दीर्घकालिक सुधारों पर ध्यान
- आयात निर्भरता के स्थान पर घरेलू क्षमताओं का निर्माण
- पारदर्शिता, जवाबदेही और तकनीक आधारित क्रियान्वयन
- आर्थिक विकास की रीढ़ के रूप में अवसंरचना
- रिसाव रहित कल्याण, लेकिन वित्तीय अनुशासन के साथ
यह परिवर्तन न तो आसान था, न ही सर्वसम्मत।
📈 परिणाम: ग्यारह वर्षों में भारत का रूपांतरण
वैश्विक आर्थिक झटकों, महामारी, युद्धों और आपूर्ति श्रृंखला संकटों के बावजूद भारत ने वे उपलब्धियाँ हासिल कीं, जो कभी असंभव मानी जाती थीं:
- भारत का विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनना
- सबसे तेज़ी से बढ़ती प्रमुख अर्थव्यवस्थाके रूप में पहचान
- सड़कों, रेल, बंदरगाहों, हवाई अड्डों और डिजिटल अवसंरचना का अभूतपूर्व विस्तार
- स्टार्टअप और डिजिटल भुगतान पारिस्थितिकी तंत्र का सशक्त विकास
- घरेलू विनिर्माण और रणनीतिक उद्योगों में मजबूती
- कूटनीति और व्यापार में भारत की बढ़ती विश्वसनीयता
ये उपलब्धियाँ संयोग नहीं, बल्कि नीति की निरंतरता और कठोर परिश्रमका परिणाम हैं।
🛡️ सुरक्षा और संप्रभुता: विकास की मौन आधारशिला
- आर्थिक विकास बिना सुरक्षा के संभव नहीं।
वर्तमान परिदृश्य में:
- सीमा अवसंरचना और रक्षा तैयारियों में सुधार
- रक्षा और तकनीक में रणनीतिक आत्मनिर्भरता
- भारत की एक विश्वसनीय सैन्य शक्ति के रूप में प्रतिष्ठा
- अनिर्णय के स्थान पर निर्णायक प्रतिक्रियाएँ
सुरक्षा कोई विचारधारा नहीं, बल्कि स्थिरता और निवेश विश्वास की नींव है।
🧱 प्रगति सहयोग से नहीं, बल्कि विरोध के बावजूद
एक तथ्य को ईमानदारी से स्वीकार करना होगा: यह परिवर्तन निरंतर विरोध के बावजूद संभव हुआ।
- विधायी अवरोधों ने सुधारों को धीमा किया
- नौकरशाही के कुछ हिस्सों ने पारदर्शिता और जवाबदेही का विरोध किया
- न्यायिक विलंब ने समय-संवेदनशील नीतियों को जटिल बनाया
- संगठित दुष्प्रचार ने जनविश्वास को कमजोर करने का प्रयास किया
फिर भी, सुधार रुके नहीं।
- जो कभी लगभग असंभव लगता था, वह आज मापनीय वास्तविकता है।
🔄 आज के आरोपों की विडंबना
आज के विमर्श का सबसे चिंताजनक पक्ष है—जवाबदेही का उलट जाना:
- जिन्होंने आर्थिक रिसाव और संस्थागत क्षरण को बढ़ावा दिया, वे आज लोकतंत्र के रक्षक बनने का दावा करते हैं
- जिन्होंने भ्रष्टाचार को सामान्य बनाया, वे आज ईमानदारी पर सवाल उठाते हैं
- जिन्होंने आयात और विदेशी निर्भरता को बढ़ाया, वे आज घरेलू क्षमता निर्माण का विरोध करते हैं
- आरोप सुधार से आसान हैं। शोर आँकड़ों से आसान है।
नागरिकों को पूछना चाहिए: किसने परिणाम दिए—और किसने केवल बहाने?
💰 आर्थिक असुविधा बनाम राष्ट्रीय लचीलापन
- महंगाई, ईंधन कीमतें और जीवन-यापन की लागत वास्तविक चिंताएँ हैं।
इन पर गंभीर चर्चा आवश्यक है।
लेकिन इतिहास—भारतीय और वैश्विक—एक स्पष्ट सबक देता है:
- जो राष्ट्र सुरक्षा, एकता और दीर्घकालिक क्षमता से समझौता करते हैं, उन्हें बाद में कहीं बड़ी आर्थिक कीमत चुकानी पड़ती है।
वास्तविक प्रश्न यह नहीं कि निर्णय आज असुविधाजनक हैं या नहीं,
बल्कि यह है कि क्या वे:
- भविष्य के संकटों के लिए लचीलापन बनाते हैं
- बाहरी निर्भरता को कम करते हैं
- आने वाली पीढ़ियों को स्थिरता प्रदान करते हैं
🧠 लोकतंत्र में नागरिकों की जिम्मेदारी
- लोकतंत्र स्थायी विरोध या निरंतर आक्रोश से नहीं चलता। वह चलता है सूचित विवेक से।
आज के भारत में नागरिकों को चाहिए कि:
- शासन का मूल्यांकन शीर्षकों नहीं, परिणामों से करें
- आलोचना और अवरोध के अंतर को समझें
- विफल प्रणालियों की झूठी यादों को अस्वीकार करें
- ईमानदार, सुधारोन्मुख शासन को राजनीतिक और सामाजिक समर्थन दें
प्रगति का समर्थन अंधभक्ति नहीं, राष्ट्रीय कर्तव्य है।
🚩 जड़ता नहीं, प्रगति का चयन
- भारत का वैश्विक महाशक्ति बनने का मार्ग सरल नहीं होगा। हर बड़े सुधार को विरोध का सामना करना पड़ता है।
लेकिन तथ्य स्पष्ट हैं:
- मजबूत अर्थव्यवस्था
- बेहतर अवसंरचना
- बढ़ती रणनीतिक आत्मनिर्भरता
- वैश्विक प्रभाव में वृद्धि
- राष्ट्रीय आत्मविश्वास का पुनर्जागरण
- इन उपलब्धियों को मान्यता, निरंतरता और समर्थन की आवश्यकता है।
भारत के सामने विकल्प स्पष्ट है:
- सुधारों के साथ प्रगति, या
- जड़ता और ठहराव की ओर वापसी
भविष्य उन्हीं राष्ट्रों का होता है जो परिश्रम को पहचानते हैं, ईमानदारी को सम्मान देते हैं और दीर्घकालिक दृष्टि का समर्थन करते हैं।
🇮🇳 जय भारत, वन्देमातरम 🇮🇳
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