कैसे राजनीतिक इनकार, वोट बैंक की राजनीति और कमजोर शासन ने भारत की आंतरिक सुरक्षा को कमजोर किया और माओवादी विचारधारा को बल दिया
🩸 1. नक्सलवाद की बढ़ती छाया — भारत के भीतर एक युद्ध
- भारत लंबे समय से नक्सलवाद की हिंसक छाया में जी रहा है। यह केवल एक “गरीबों की आवाज़” नहीं, बल्कि एक संगठित माओवादी विचारधारा थी जो भारत के संविधान और लोकतंत्र को नष्ट कर सशस्त्र क्रांति के ज़रिए एक साम्यवादी शासन स्थापित करना चाहती थी।
- 2004-05 तक यह संकट नौ राज्यों के 76 जिलों तक फैल चुका था। गृह मंत्रालय की रिपोर्ट में बताया गया कि लगभग 9,300 सक्रिय नक्सली और 6,500 आधुनिक हथियारों के साथ ये समूह भारत के खिलाफ युद्ध छेड़े हुए थे।
- फिर भी कांग्रेस-नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने इस खतरे को केवल “कानून-व्यवस्था की समस्या” बताकर टाल दिया — जबकि यह असल में भारत के अस्तित्व के खिलाफ वैचारिक युद्ध था।
⚖️ 2. राजनीतिक इनकार और वोट-बैंक की सोच
- यूपीए सरकार का रवैया केवल अज्ञानता नहीं था, बल्कि सोची-समझी राजनीतिक रणनीति थी।
- नक्सल हिंसा मुख्यतः हिन्दू बहुल ग्रामीण और आदिवासी इलाकों में फैल रही थी, जो कांग्रेस के वोट-बैंक का हिस्सा नहीं थे। इसलिए इस पर कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया।
- इसी तरह मिशनरी धर्मांतरण भी इन्हीं क्षेत्रों में बढ़ रहे थे, लेकिन सरकार ने उन्हें अनदेखा किया क्योंकि यह उनके वोट-बैंक को प्रभावित नहीं करता था — उल्टा हिन्दू समाज की जनसंख्या और एकता को कमजोर करता था।
- खालिस्तान आंदोलन में भी हिन्दू व्यापारी, किसान और सामान्य नागरिक ही सबसे ज़्यादा प्रभावित हुए, लेकिन सरकार ने समय रहते कठोर कदम नहीं उठाए।
- यदि यही संकट कांग्रेस के वोट-बैंक समुदायों को प्रभावित करते, तो कार्रवाई तत्काल होती। पर जब मामला हिन्दू समाज से जुड़ा था, तो “सहानुभूति” और “विकास की बातें” ढाल बना ली गईं।
यही कांग्रेस की वोट-बैंक नीति का खतरनाक चेहरा था — जहाँ हिन्दू ही हमेशा नरम लक्ष्य बने और “धर्मनिरपेक्षता” के नाम पर उनके हितों की बलि दी गई।
💣 3. 2004 का विलय — जब नक्सलवाद ने नया रूप लिया
अक्टूबर 2004 में भारत के दो सबसे हिंसक नक्सली संगठन —
- पीपुल्स वॉर ग्रुप (PWG)
- माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर (MCCI)
मिलकर बने कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओवादी)।
- यह भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा आतंरिक सुरक्षा मोड़ था, जिसने हजारों प्रशिक्षित उग्रवादियों को एक झंडे के नीचे ला दिया।
- गृह मंत्रालय ने इस विलय का उल्लेख तो किया, लेकिन कोई नई नीति नहीं बनाई। नतीजा:
>बिहार में नक्सली घटनाएँ 29% बढ़ीं, मौतें 34% बढ़ीं
> झारखंड में नक्सली हिंसा से 44% अधिक मौतें हुईं
> छत्तीसगढ़ में पुलिस बलों पर लगातार हमले हुए, 41 जवान मारे गए
जब नक्सली एकजुट होकर ताकतवर हो रहे थे, सरकार आपस में बंटी हुई और नाकाम थी।
🕊️ 4. “शांति वार्ता” — एक राजनीतिक जाल
2004 में यूपीए सरकार ने नक्सलियों के साथ “शांति वार्ता” शुरू की।
जून में युद्धविराम घोषित हुआ, अक्टूबर में बातचीत — पर यह वार्ता नक्सलियों के लिए वरदान साबित हुई।
- उन्होंने युद्धविराम का फायदा उठाकर नए सदस्य भर्ती किए
- हथियार जमा किए
- ओडिशा, पश्चिम बंगाल, झारखंड और उत्तर प्रदेश तक विस्तार किया
- जनवरी 2005 में उन्होंने वार्ता से पीछे हटकर फिर से हिंसा शुरू कर दी।
गृह मंत्रालय ने खुद माना कि “शांति वार्ता” के बावजूद सक्रिय नक्सलियों का विस्तार हुआ।
वास्तव में यह “शांति प्रक्रिया” नहीं, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा की घातक भूल थी।
🧠 5. गरीबी नहीं, विचारधारा — असली जड़
- कांग्रेस और वामपंथी बुद्धिजीवी नक्सलवाद को “गरीबी की प्रतिक्रिया” बताते रहे।
लेकिन माओवादियों के अपने दस्तावेज़ “भारतीय क्रांति की रणनीति और तकनीक (2004)” में लिखा था: - “भारतीय क्रांति का केंद्रीय कार्य राजनीतिक सत्ता का कब्जा है।”
- इसका मतलब स्पष्ट था — यह आर्थिक नहीं, राजनीतिक-वैचारिक युद्ध था।
माओवादी “जन अदालतें” बनाकर ग्रामीणों को मारते, विकास कार्यों को नष्ट करते और लोकतंत्र के खिलाफ हथियार उठाते रहे।
🌐 6. सीमा पार नेटवर्क और अंतरराष्ट्रीय खतरा
नक्सली नेटवर्क भारत की सीमाओं से आगे बढ़कर नेपाल के कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) से जुड़ा हुआ था। दोनों संगठनों ने:
- हथियारों का आदान-प्रदान किया
- झारखंड और बिहार में संयुक्त प्रशिक्षण शिविर चलाए
- नेपाल के कैडर भारत में शरण लेते रहे
यह गठबंधन भारत की संप्रभुता के लिए सीधा खतरा था। बावजूद इसके, यूपीए सरकार ने इसे गंभीरता से नहीं लिया।
⚠️ 7. कांग्रेस की दोहरी नीति और हिंदू समाज की कीमत
यूपीए सरकार की कमजोर नीतियों का असर केवल सुरक्षा पर नहीं, बल्कि समाज पर भी पड़ा।
- नक्सल हिंसा में हजारों हिंदू ग्रामीण और सुरक्षा बल मारे गए।
- मिशनरी धर्मांतरणों से आदिवासी हिंदू समाज टूटता गया।
- खालिस्तान और अन्य अलगाववादी गतिविधियों से सीमा क्षेत्र अस्थिर हुए।
- फिर भी, कांग्रेस ने इन सबको “विकास” या “सामाजिक असमानता” का मुद्दा बताकर नजरअंदाज किया।
- क्योंकि यह सब उनके वोट बैंक को नुकसान नहीं पहुँचा रहे थे।
और हर बार, जब देश में असंतोष बढ़ता, तो कांग्रेस नई विवाद और दंगे खड़े करके जनता का ध्यान भटकाती रही , ताकि लूट, भ्रष्टाचार और घोटाले छिपे रहें।
🔱 8. निर्णायक सरकार — सुरक्षा और विकास का संगम
वर्तमान राष्ट्रीय सरकार ने इस समस्या को केवल “कानून-व्यवस्था” नहीं, बल्कि आंतरिक युद्ध माना।
- बड़े पैमाने पर सुरक्षा ऑपरेशन चलाए गए
- नक्सल इलाकों में सड़कें, बिजली, स्कूल और इंटरनेट पहुँचाए गए
- 400 से अधिक माओवादी सरेंडर कर चुके हैं
- प्रभावित जिले 165 से घटकर 45 रह गए हैं
गृह मंत्रालय का लक्ष्य स्पष्ट है —
- “2026 तक भारत को नक्सल-मुक्त बनाना।”
यह केवल नीतिगत बदलाव नहीं, बल्कि राष्ट्रीय संकल्प का प्रतीक है।
🧩 9. सबक — इनकार से एकता तक
- 2004-05 की गलतियों ने सिखाया कि जब सरकारें वोट-बैंक की राजनीति में फँस जाती हैं, तो राष्ट्र की सुरक्षा खतरे में पड़ जाती है।
- आज का भारत यह समझ चुका है कि शांति और समृद्धि के लिए साहस, स्पष्टता और एकता जरूरी है।
- हिंदू समाज को अब यह समझना होगा कि कांग्रेस और तथाकथित गठबंधन ने हमेशा उनके हितों को कमजोर किया है।
- अब समय है कि हर देशभक्त नागरिक राष्ट्रीयतावादी सरकार का समर्थन करे और भारत को विश्व की शीर्ष तीन शक्तियों में पहुँचाने की दिशा में अपनी भूमिका निभाए।
🕉️ शांति पीछे हटने से नहीं, संकल्प से मिलती है
- नक्सलवाद केवल विकास की कमी से नहीं, बल्कि वैचारिक और राजनीतिक लापरवाही से पनपा।
- आज जब भारत दृढ़ इच्छाशक्ति और राष्ट्रवादी नीति के साथ आगे बढ़ रहा है, तब यह स्पष्ट है —
“जब शासन निर्णायक हो, तो आतंक झुकता है और विकास जीतता है।”
🇮🇳 जय भारत, वन्देमातरम 🇮🇳
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