🚨 क्या भारतीय न्यायपालिका अपने असली कर्तव्य से भटक चुकी है?
🚨 क्या कॉलेजियम प्रणाली भाई–भतीजावाद और राजनीतिक गठजोड़ों का अड्डा बन गई है?
🚨 क्या जजों की नियुक्ति और फैसलों में निष्पक्षता खत्म हो चुकी है?
इन सवालों के जवाब हमें आज की न्यायिक प्रणाली की सच्चाई को उजागर करने में मदद करते हैं।
न्यायपालिका: न्याय का मंदिर या सत्ता का मंच?
हमारी न्यायपालिका को संविधान का संरक्षक माना जाता है, लेकिन वास्तविकता में यह अब सत्ता, पैसे और भाई–भतीजावाद का केंद्र बनती जा रही है।
👉 जजों की नियुक्ति पारदर्शी नहीं है।
👉 कॉलेजियम सिस्टम में कुछ गिने–चुने जज अपने पसंदीदा लोगों को ही पदोन्नति देते हैं।
👉 कई मामलों में न्यायिक फैसले सत्ता के एजेंडे को साधने के लिए दिए जाते हैं।
👉 धार्मिक और राष्ट्रवादी विचारधारा से जुड़े मामलों में भेदभाव किया जाता है।
✅ परिणाम?
जो न्यायपालिका संविधान की रक्षा के लिए बनी थी, वह अब खुद को विधायिका और कार्यपालिका से भी ऊपर समझने लगी है।
जस्टिस यशवंत वर्मा: योग्यता या राजनीतिक संबंध?
👉 यह सिर्फ एक उदाहरण है, लेकिन यह भारतीय न्यायपालिका के अंदर चल रहे खेल को पूरी तरह उजागर करता है।
✅ जस्टिस यशवंत वर्मा कौन हैं?
- इलाहाबाद हाई कोर्ट के पूर्व जज ए.एन. वर्मा के बेटे।
- पिता के प्रभाव से इलाहाबाद हाई कोर्ट में वकालत शुरू की।
- “अंकल जजों” का समर्थन मिला, बड़े मामलों में जल्द ही नाम बना लिया।
- राजनीतिक गठजोड़ का फायदा उठाकर उच्च पदों तक पहुंचे।
✅ 2003: जब मुलायम सिंह यादव यूपी के मुख्यमंत्री बने, तब
- उन्होंने विवादास्पद तरीकों से उद्योगपतियों को औने–पौने दाम में जमीन देना शुरू किया।
- किसानों ने विरोध किया और सोचा कि एक जज का बेटा ही उनकी लड़ाई लड़ सकता है।
- किसानों ने यशवंत वर्मा को अपना वकील नियुक्त किया।
लेकिन फिर हुआ खेल…
- मुलायम सिंह ने उन्हें अपने खेमे में कर लिया।
- किसानों के साथ होने के बावजूद, उन्होंने उद्योगपतियों और मुलायम सिंह के लिए काम करना शुरू कर दिया।
- इससे उन्हें सत्ता और पैसे दोनों का लाभ मिला।
✅ 2006: मुलायम सिंह ने उन्हें उत्तर प्रदेश सरकार का विशेष वकील बना दिया।
✅ 2012: जब अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बने, तो उन्होंने “चीफ स्टैंडिंग काउंसिल“ बना दिया।
✅ 2013: अखिलेश सरकार के कहने पर वाराणसी बम धमाकों के आरोपियों के खिलाफ केस वापस लेने के लिए कोर्ट में अपील की।
👉 क्या यह न्यायपालिका की निष्पक्षता है? या सत्ता की कठपुतली बन चुकी व्यवस्था?
✅ 2014:
- भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश आर.एम. लोढ़ा के नेतृत्व में कॉलेजियम ने यशवंत वर्मा को इलाहाबाद हाई कोर्ट का अतिरिक्त जज बना दिया।
- नियुक्ति के बाद, उन्होंने मलाईदार मामलों से मोटी कमाई की और सत्ता के करीब बने रहे।
✅ 2021:
- कॉलेजियम ने उन्हें दिल्ली हाई कोर्ट का जज बना दिया।
- यह प्रमोशन राजनीतिक प्रभाव और उद्योगपतियों के समर्थन के कारण हुआ।
👉 अब सवाल उठता है – क्या यह नियुक्तियां न्यायिक निष्पक्षता पर आधारित थीं या राजनीतिक समीकरणों पर?
न्यायपालिका का पतन: कॉलेजियम प्रणाली और भाई–भतीजावाद
आज भारत में न्यायपालिका खुद को संविधान से भी ऊपर समझने लगी है।
📌 कॉलेजियम प्रणाली – जजों द्वारा जजों की नियुक्ति का खेल।
📌 पारदर्शिता का अभाव – आम जनता और सरकार को कोई अधिकार नहीं।
📌 भ्रष्टाचार और भाई–भतीजावाद – सत्ता और पैसे के गठजोड़ से न्यायिक पदों की बिक्री।
📌 न्यायपालिका राजनीतिक दलों के इशारों पर चल रही है।
✅ कैश कांड – क्या यही न्यायपालिका की सच्चाई है?
- हाल ही में कई जजों के खिलाफ भ्रष्टाचार और रिश्वत के मामले सामने आए हैं।
- भ्रष्ट जज सत्ता और उद्योगपतियों के इशारों पर फैसले देते हैं।
- न्याय अब बिकने वाली वस्तु बन चुका है।
👉 क्या यह वही न्यायपालिका है जिसे संविधान ने सर्वोच्च बनाया था
कॉलेजियम प्रणाली का अंत निकट है!
✅ जनता अब इस अन्याय को बर्दाश्त नहीं करेगी।
✅ न्यायपालिका में पारदर्शिता और जवाबदेही लाने के लिए एक नई प्रणाली की जरूरत है।
✅ कॉलेजियम को खत्म कर, एक निष्पक्ष और पारदर्शी नियुक्ति प्रणाली लागू करनी होगी।
अब समय आ गया है कि हम इस न्यायिक भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाएं!
🚩 “भारत में न्याय होगा, सत्ता का खेल नहीं!” 🚩
जय श्री राम! जय सनातन धर्म! हर हर महादेव!
🇳🇪 जय भारत, वन्देमातरम🇳🇪
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