- कांग्रेस–ठगबंधन की राजनीति पर मुस्लिम तुष्टीकरण एवं भारत की सुरक्षा, सनातन धर्म और सामाजिक संतुलन को कमजोर करने के आरोप दशकों से लगते रहे हैं
1️⃣ प्रस्तावना: भारत के सामने सभ्यतागत प्रश्न
- पिछले कई दशकों से समाज के एक बड़े वर्ग और अनेक चिंतकों का मानना है कि भारत की समस्याएँ केवल आर्थिक या प्रशासनिक नहीं हैं, बल्कि सभ्यतागत भी हैं।
- मुख्य आरोप यह है कि कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकारों और बाद में बने विपक्षी गठबंधनों—जिन्हें आम बोलचाल में ठगबंधन कहा जाता है—ने शासन को तुष्टिकरण की नीति बना लिया।
इस दृष्टिकोण के अनुसार:
- राष्ट्रीय हित से अधिक वोट-बैंक गणित को प्राथमिकता दी गई
- सांस्कृतिक समानता की जगह पहचान-आधारित राजनीति को बढ़ावा मिला
- आंतरिक सुरक्षा और सभ्यतागत संतुलन को दीर्घकालिक रूप से नुकसान पहुँचा
यह आलोचना नीतियों, संस्थाओं और विचारधाराओं की है, किसी सामान्य नागरिक या समुदाय की नहीं।
2️⃣ वोट-बैंक राजनीति: शासन का स्थायी मॉडल
आलोचकों का कहना है कि चुनावी जीत ही शासन का केंद्र बन गई, जिसके परिणामस्वरूप:
- धर्म-आधारित वोटों का समेकन, राष्ट्रीय एकता के स्थान पर
- संवेदनशील मुद्दों पर निर्णय लेने से बचना, ताकि वोट न खिसकें
- सुरक्षा, सुधार और सांस्कृतिक संतुलन पर बार-बार समझौते
इस प्रकार तुष्टिकरण केवल एक रणनीति नहीं रहा, बल्कि संस्थागत शासन-पद्धति बन गया।
3️⃣ चयनात्मक धर्मनिरपेक्षता और संस्थागत असमानता
सबसे प्रमुख आरोप असमान धर्मनिरपेक्षताका है, जिसके अंतर्गत:
- हिंदू मंदिरों पर व्यापक सरकारी नियंत्रण (प्रशासन, आय, नियुक्तियाँ, ऑडिट)
- अन्य धर्मों के संस्थानों को “अल्पसंख्यक अधिकारों” के नाम पर स्वायत्तता
- मंदिरों की आय का गैर-धार्मिक उद्देश्यों के लिए उपयोग
आलोचकों के अनुसार इससे यह स्थिति बनी कि बहुसंख्यक संस्कृति को नियंत्रित किया गया, जबकि अन्य को संरक्षित।
4️⃣ संवैधानिक और कानूनी ढाँचा: असंतुलन का सामान्यीकरण
समय के साथ आलोचक यह भी कहते हैं कि:
- संवैधानिक संशोधनों और कानूनी व्याख्याओं के माध्यम से हिंदू संस्थाओं पर राज्य का प्रभाव बढ़ाया गया
- “अल्पसंख्यक संरक्षण” के नाम पर असमानता को वैधानिक रूप दिया गया
- सनातन संस्कृति की वैध अभिव्यक्ति को कानूनी जोखिम बना दिया गया
इसे एक धीमी लेकिन व्यवस्थित सभ्यतागत क्षति के रूप में देखा जाता है।
5️⃣ वैचारिक पारिस्थितिकी तंत्र: सनातन पहचान का पुनर्परिभाषण
नीतियों के समानांतर एक वैचारिक माहौल भी बनाया गया, जो:
- मीडिया
- शिक्षा जगत
- एनजीओ
- सांस्कृतिक विमर्श में फैला।
आरोप है कि इसमें:
- हिंदू पहचान को स्वतः “बहुसंख्यक” और “पिछड़ा” बताया गया
- सनातन परंपराओं को आधुनिकता का विरोधी दिखाया गया
- सांस्कृतिक स्वाभिमान को सांप्रदायिकता से जोड़ा गया
इससे समाज में आत्म-संदेह और सांस्कृतिक संकोचपैदा हुआ।
6️⃣ राष्ट्रीय सुरक्षा और उग्रवाद: हिचकिचाहट की कीमत
सबसे गंभीर आरोप राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा है।
आलोचकों के अनुसार:
- उग्रवादी विचारधाराओं को राजनीतिक कारणों से कम आँका गया
- आतंकवाद को वैचारिक खतरे की बजाय केवल कानून-व्यवस्था का मुद्दा बताया गया
- कठोर कार्रवाई में देरी और समझौते किए गए
इससे जिहादी, उग्रवादी और अलगाववादी तत्वोंको साहस मिला।
7️⃣ जनसांख्यिकीय चिंता और दबा हुआ विमर्श
एक और महत्त्वपूर्ण पहलू यह बताया जाता है कि:
- अवैध घुसपैठ
- दबाव या छल से धर्मांतरण
- जनसंख्या आधारित राजनीतिक रणनीति
- सांस्कृतिक डराने-धमकाने
जैसे मुद्दों पर चर्चा को “सांप्रदायिक” कहकर दबा दिया गया।
- परिणामस्वरूप समय रहते सुधारात्मक कदम नहीं उठ पाए।
8️⃣ सनातन धर्म और हिंदू समाज पर प्रभाव
इन सबका सम्मिलित प्रभाव, आलोचकों के अनुसार:
- मंदिरों की स्वायत्तता में कमी
- हिंदू समाज में रक्षात्मक मानसिकता
- नौकरशाही और न्यायपालिका में सांस्कृतिक संदर्भ से दूरी
- सनातन धर्म को बार-बार सफाई देने की स्थिति
इससे भारत का सभ्यतागत आत्म-विश्वास कमजोर हुआ।
9️⃣ न्यायपालिका पर दबाव: उसी प्रवृत्ति का विस्तार
हाल के वर्षों में:
- हिंदू परंपराओं या सांस्कृतिक प्रतीकों को मान्यता देने वाले न्यायाधीशों पर दबाव
- सांस्कृतिक तटस्थता को “पक्षपात” बताना
- महाभियोग जैसे संवैधानिक औजारों का दुरुपयोग
इसी दीर्घकालिक वैचारिक प्रवृत्ति का परिणाम माना जाता है।
🔟 2014 के बाद: समर्थकों के अनुसार सुधार की दिशा
2014 के बाद के शासन को समर्थक इस रूप में देखते हैं:
- चयनात्मक धर्मनिरपेक्षता का अंत
- सभी परंपराओं के प्रति समान सम्मान
- उग्रवाद और आतंकवाद पर सख्त रुख
- भारत की सभ्यतागत जड़ों में आत्मविश्वास की वापसी
उनके अनुसार यह ध्रुवीकरण नहीं, संतुलन की पुनर्स्थापना है।
1️⃣1️⃣ यह राजनीतिक आलोचना है, सामुदायिक आरोप नहीं
यह नैरेटिव:
किसी सामान्य नागरिक या धर्म पर आरोप नहीं लगाता सिर्फ आतंकवाद और राष्ट्रविरोधी तत्वों के विरूद्ध आवाज उठाता है
- पुरानी नीतियों, राजनीतिक प्रोत्साहनों और वैचारिक ढाँचों की आलोचना करता है
मुख्य मांगें हैं:
- समान धर्मनिरपेक्षता, चयनात्मक नहीं
- उग्रवाद पर शून्य सहिष्णुता
- न्यायिक स्वतंत्रता बिना वैचारिक दबाव
- सनातन धर्म सहित सभी आस्थाओं का संवैधानिक सम्मान
आलोचकों के अनुसार, भारत की शक्ति संविधान और सभ्यता के संतुलन में निहित है, न कि तुष्टिकरण की राजनीति में।
🇮🇳 जय भारत, वन्देमातरम 🇮🇳
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