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धीरे हॉर्न बजा रे पगले| हिंदू समाज सोया है

आज मैं एक ऐसा वाकया साझा कर रहा हूं जिसने मुझे झकझोर कर रख दिया।

रास्ते में चलते हुए, मैंने एक ट्रक के पीछे लिखा एक गहरा संदेश देखा:
“धीरे हॉर्न बजा रे पगले… हिंदू समाज सोया है।”

यह शब्द मेरे मन में गूंजने लगे और मेरी जिज्ञासा बढ़ गई कि आखिर यह लिखवाने वाले की प्रेरणा क्या थी। मैं उस ट्रक का पीछा करता रहा, सोचते हुए कि किसी ढाबे या स्टॉप पर वह रुकेगा, और मुझे उससे बात करने का मौका मिलेगा।

ढाबे पर मुलाकात
आखिरकार, वह ट्रक एक ढाबे पर चाय के लिए रुका। मैं भी वहीं रुक गया और उसके पास की चारपाई पर बैठ गया। बातचीत शुरू करते हुए मैंने पूछा,
“भाई साहब, आपने ट्रक के पीछे यह संदेश क्यों लिखवाया?”

उसने मुस्कुराते हुए जवाब दिया,
“बाबू जी, वक्त बड़ी चीज है। यह अच्छे-अच्छों को प्रेरणा देता है, लेकिन दिक्कत यह है कि जब हमें भरपेट रोटी मिल जाती है, तो हम प्रेरणा लेना ही बंद कर देते हैं। मैंने यह संदेश इसलिए लिखा कि हजारों लोग इसे पढ़ें। अगर उनमें से 20% भी इसे समझ जाएं, तो मेरा मकसद पूरा हो जाएगा।”

उसकी बातों ने मुझे और प्रभावित किया। तभी उसने अपनी जेब से एक पर्चा निकाला और उस पर लिखी एक कविता सुनाई।

कविता: धीरे हॉर्न बजा रे पगले… हिंदू समाज सोया है
मनुवाद के जुल्म-सितम से,
फूट-फूटकर ‘रोया’ है…
धीरे हॉर्न बजा रे पगले,
हिंदू समाज सोया है…!!

भूत-भविष्य खो चैन मिला है,
‘पूरी’ नींद से सोने दे…
जगह मिले, वहाँ ‘साइड’ ले ले,
हो शोषण तो होने दे…
किसे जगाने की चिंता में,
तू इतना जो ‘खोया’ है…
धीरे हॉर्न बजा रे पगले,
हिंदू समाज सोया है…!!

आरक्षण के सब ‘नियम’ पड़े हैं,
कब से ‘बंद’ किताबों में…
‘जिम्मेदार’ पिछड़ों के नेता,
सारे लगे गुलामी में…
तू भी कर ले झूठे वादे,
क्यों ‘ईमान’ में खोया है…
धीरे हॉर्न बजा रे पगले,
हिंदू समाज सोया है…!!

ये समाज है ‘सिंह’ सरीखा,
जब तक सोये, सोने दे…
‘गुलामी की इन सड़कों पर,
तू नित शोषण होने दे…
समाज जगाने की हठ में,
क्यों दुख में रोया है…
धीरे हॉर्न बजा रे पगले,
हिंदू समाज सोया है…!!

अगर समाज यह ‘जाग’ गया तो,
शोषक सीधा हो जाएगा…
आर.एस.एस. वाले ‘चुप’ हो जाएँगे,
और हर मनुवादी ‘रोयेगा’…
अज्ञानता से ‘शर्मसार’ हो,
बाबा भीम भी ‘रोया’ है…
धीरे हॉर्न बजा रे पगले,
हिंदू समाज सोया है…!!

विचारों का आदान-प्रदान

उसकी कविता ने मुझे भीतर तक झकझोर दिया। बातचीत के दौरान कब चाय आई और कब खत्म हो गई, पता भी नहीं चला।
चाय पीने के बाद, वह अपने रास्ते निकल पड़ा। लेकिन उसकी चिंता और हिंदू समाज के प्रति उसकी गहरी संवेदनशीलता मेरे दिल में घर कर गई।

उस वक्त मैं बस इतना ही कह पाया,
“दोस्त, आज से आप अकेले नहीं हैं। मैं भी इस मुहिम का हिस्सा बनूंगा और इस संदेश को औरों तक पहुंचाऊंगा।”

विशेष आग्रह

अगर आप भी इस मुहिम में हिस्सा लेना चाहते हैं, तो आपका स्वागत है।
यह संदेश जितना गहरा है, उतना ही जागरूकता फैलाने वाला भी।
आप इसे अपने दोस्तों, परिवार और समाज के हर व्यक्ति तक पहुंचाएं।
याद रखें: एक छोटे से कदम से बड़ी क्रांति की शुरुआत होती है।

वंदे मातरम! 

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