आने वाला दशक तय करेगा कि सनातन बचेगा या केवल स्मृति बनकर रह जाएगा
I. समय की टिक–टिक: सभ्यता का अंतिम मोड़
- सभ्यताएँ बाहरी हमलों से नहीं, भीतर की नींद से समाप्त होती हैं।
- टूटन मंदिरों से नहीं, मंदिर जाने वालों की चुप्पी से शुरू होती है।
मानव समय में दस वर्ष लंबे लगते हैं, सभ्यताओं के इतिहास में यह सिर्फ एक पल जितना होता है।
- आज जो हम बचा सकते हैं, वही तय करेगा:
- हमारी अगली पीढ़ी आत्मविश्वास से जीएगी या डर से,
- हमारी परंपराएँ सार्वजनिक रहेंगी या सिर्फ घरों की चारदीवारियों में,
- हमारा धर्म गर्व का विषय रहेगा या अपराध की तरह फुसफुसाकर बोला जाएगा।
यह दशक निर्णायक है — अस्तित्व के लिए, सम्मान के लिए, सनातन के लिए।
II. इतिहास की चेतावनी — अनसुने सत्य की कीमत
जब चेतावनी का मज़ाक उड़ाया जाता है, तब परिणाम मज़ाक नहीं होते।
- 1930 के दशक में पंजाब, मुल्तान, सिंध, बलूचिस्तान के हिंदुओं को कहा गया:
“एकजुट हो जाओ, समय कम है।” - जवाब मिला — “तुम डर फैला रहे हो।”
परिणाम स्वरूप 1947 में :
- घर टूटे
- शहर खाली हुए
- पहचानें मिट गईं
1980 के दशक में कश्मीर में कहा गया:
- “झूठे भाईचारे के भ्रम में मत रहो।”
- उत्तर मिला— “ऐसी बात मत करो, सब ठीक है।”
परिणाम स्वरूप 1990 में :
- लाखों का पलायन
- सैकड़ों साल की जड़ें उखाड़ दी गईं
- अपने ही देश में शरणार्थी बनना पड़ा
इतिहास बार–बार चेताता है — जो सुन लेते हैं, वे बच जाते हैं। जो हँस देते हैं, वे खो जाते हैं।
III. आज की रणनीति: दबाव नहीं, संवाद की परिभाषा बदलना
l आज किसी सभ्यता को बंदूक से नहीं, उसकी आवाज़ को नाम देकर रोका जाता है।
हर बार जब कोई हिन्दू सच बोलता है:
- “हेट स्पीच”
- “बहुसंख्यक कट्टरता”
- “धार्मिक ध्रुवीकरण”
- “असहिष्णुता”
जैसे शब्द तुरंत उसके मुँह पर फेंक दिए जाते हैं।
- लक्ष्य बहस नहीं है,
- लक्ष्य खामोशी है।
मौन एक हथियार बन चुका है
- अगर बोलना अपराध बना दिया जाए,
- अगर सच “नफरती” घोषित हो जाए,
- अगर अपने धर्म की रक्षा “कट्टरता” कहलाए,
तो समाज स्वयं ही अपनी जीभ काट देता है।
IV. वास्तविक खतरा: बाहर नहीं, भीतर की दरार
- इतिहास में बाहरी शत्रु हमेशा रहे, लेकिन समाज तब हारता है जब भीतर वैमनस्य पैदा हो:
आज हिंदू समाज को तोड़ने वाले कारक
- जातिगत तनाव
- राजनीतिक खेमे
- पश्चिमी विचारों के सामने बौद्धिक आत्मसमर्पण
- धर्मनिरपेक्षता की नकली व्याख्याएँ
- क्षेत्रीय और भाषाई श्रेष्ठताएँ
वहीं दूसरी ओर विरोधी शक्तियाँ
- एक एजेंडा बनाती हैं
- एक भाषा में बोलती हैं
- संगठित वित्त नेटवर्क बनाती हैं
- वैचारिक प्रशिक्षण तैयार करती हैं
- यानी वे जुड़ते रहे, हम बिखरते रहे।
सभ्यताएँ शत्रुओं की शक्ति से नहीं, अपनों की कमजोरी से गिरती हैं।
V. आने वाला दशक: क्या दांव पर लगा है?
अगर आज भी समाज न जागा तो:
- त्यौहार “अनुमति–आधारित” बन जाएंगे
- धार्मिक प्रतीक “नियमन” में आएँगे
- परंपरा “असहिष्णुता” कहलाएगी
- हिंदू पहचान “बहुसंख्यक अपराध” कहलाई जाएगी
- धार्मिक शिक्षा “कट्टरता” घोषित होगी
- राष्ट्रीयता “धमकाव” कहलाएगी
यह कल्पना नहीं — यह विश्व-इतिहास का पैटर्न है।
VI. समाधान — आत्मबल + संगठन
1. सांस्कृतिक बोध
- धर्म केवल पूजा नहीं, पहचान भी है
- ग्रंथ केवल कथा नहीं, दिशा भी देते हैं
2. आत्मगौरव
- सनातन के लिए क्षमा मांगना नहीं, उसे गर्व से जीना है
3. बौद्धिक संगठन
- अपने इतिहास, धर्म, संस्कृति का अध्ययन
- डिजिटल व शोध मंचों का निर्माण
4. एकता, हर विभाजन से ऊपर
- जाति से ऊपर संस्कृति
- भाषा से ऊपर राष्ट्र
- क्षेत्र से ऊपर सनातन
सभ्यता सर्वनाम है, उपनाम नहीं।
VII. सत्य स्वीकारो — मौन समाधान नहीं, पराजय है
- जो 1930 में चुप रहे, 1947 में सब खो बैठे।
- जो 1980 में चुप रहे, 1990 में जड़ से उखाड़ दिए गए।
- जो आज भी सोचते हैं “सब ठीक है,” वे तय कर रहे हैं कि कल क्या खोना है।
मौन शांति नहीं, आत्मसमर्पण का पूर्वाभ्यास है।
VIII. अंतिम आग्रह — संयम में भी संकल्प
आपसे न घृणा माँगी जा रही, न संघर्ष। आपसे माँगा जा रहा है:
- आत्मगौरव
- स्पष्टता
- संगठन
- बौद्धिक तैयारी
इतिहास देख रहा है — यह पीढ़ी थकी नहीं, तत्पर है या नहीं।
- अगर हम अभी भी नहीं संभले तो अपना सबकुछ खो देंगे।
🇮🇳जय भारत, वन्देमातरम 🇮
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