यह कहानी 1971 के बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दौरान हिंदुओं द्वारा झेले गए अत्याचारों की हृदयविदारक तस्वीर पेश करती है। यह उस भयावह समय का वर्णन करती है जब एक हिंदू परिवार को हिंसा, भय और दुश्मनी के माहौल में अपनी पहचान छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा।
संघर्ष की शुरुआत
सचिंद्र चंद्र आइच, जो मैमनसिंह सिटी कॉलेज में अंग्रेज़ी के शिक्षक थे, अपने समुदाय में बहुत सम्मानित थे। लेकिन 25 मार्च, 1971 के बाद, शहर में हिंदुओं और अवामी लीग के सदस्यों की हत्याएं शुरू हो गईं। उनके घरों में आग लगा दी गई, और हिंदू परिवार हमेशा जान का डर लेकर जीने को मजबूर थे। इस भय से सचिंद्र और उनका परिवार शिबरामपुर गांव भाग गए।
गांव में शरण लेने के बावजूद, उनके संसाधन धीरे-धीरे खत्म हो गए। जीवन की आवश्यकता और सुरक्षा के लिए, सचिंद्र ने अपने मुस्लिम दोस्तों की मदद से शहर लौटने का फैसला किया और उनके घरों में शरण ली। हालांकि, हिंदू होने के कारण वे अपनी नौकरी पर लौटने में असमर्थ थे।
जीवन बचाने के लिए जबरन धर्म परिवर्तन
सिटी कॉलेज के प्रधानाचार्य ने सचिंद्र को चेतावनी दी कि स्थानीय लोग और बिहारी हिंदुओं को स्वीकार नहीं करेंगे। जान और नौकरी बचाने के लिए, सचिंद्र और उनके परिवार को मजबूरन स्थानीय मस्जिद में जाकर इस्लाम धर्म अपनाना पड़ा।
यह फैसला उनके लिए केवल अस्तित्व की लड़ाई थी, जहां उन्हें अपने धर्म और पहचान को छोड़ना पड़ा। सचिंद्र, उनकी पत्नी, माता-पिता और बहन ने इस्लाम धर्म अपनाया।
धर्म परिवर्तन के बाद भी संघर्ष जारी
धर्म परिवर्तन के बाद भी उनका जीवन शांत नहीं हुआ। सचिंद्र की बहन कानन सरकार ने बताया कि पड़ोसियों और समाज ने लगातार उन पर निगरानी रखी। रमज़ान के दौरान महिलाओं का समूह उनके घर में घुसकर भोजन और चावल के बर्तनों की जांच करता था, यह देखने के लिए कि क्या वे रोज़ा रख रहे हैं।
परिवार को अपनी हिंदू पहचान के प्रतीक, जैसे विवाहित महिलाओं द्वारा सिंदूर पहनना, त्यागना पड़ा। सचिंद्र को मस्जिद में जाकर नमाज़ पढ़नी पड़ी, ताकि यह साबित हो सके कि वे मुसलमान हैं।
पलायन और अपराधबोध के क्षण
अपने धर्म को छोड़ने का दर्द परिवार के लिए गहरा था। सचिंद्र ने बताया कि उन्हें अक्सर सैन्य चौकियों पर इस्लामिक पहचान साबित करनी पड़ती थी। उन्होंने कुरान की सूरा फातिहा याद कर ली थी, ताकि किसी भी पूछताछ में अपनी जान बचा सकें।
मुक्ति और हिंदू धर्म में वापसी
जब बांग्लादेश को आज़ादी मिली, तो सचिंद्र और उनके परिवार ने राहत और खुशी महसूस की। आसपास की मुस्लिम महिलाओं ने उनके घर आकर महिलाओं के माथे पर सिंदूर लगाया, जिससे उनकी हिंदू पहचान लौट आई।
मुक्ति संग्राम के अगले ही दिन, परिवार अपने शहर के घर लौट आया। मकान मालिक की पत्नी ने सिंदूर का डिब्बा लाकर सचिंद्र की मां और बहन के माथे पर सिंदूर लगाया। यह पल उनके लिए अत्यंत भावुक था, जिसमें उन्होंने अपने धर्म परिवर्तन के अपराधबोध को कुछ समय के लिए भुला दिया।
एक गहरी सीख
सचिंद्र ने कहा कि अगर देश स्वतंत्र नहीं होता, तो वे शायद अपनी पहचान हमेशा के लिए खो देते। यह कहानी हमें याद दिलाती है कि संघर्ष के समय में धर्म और पहचान की रक्षा कितनी महत्वपूर्ण होती है।
युवाओं के लिए प्रेरणा
यह कहानी युवाओं को यह समझाने के लिए है कि संकट के समय में किस तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है। यह धार्मिक स्वतंत्रता, सांस्कृतिक पहचान, और मानव गरिमा की रक्षा के महत्व को रेखांकित करती है।
आज के युवा इस कहानी से प्रेरणा लेकर एक ऐसे समाज की कल्पना कर सकते हैं, जहां किसी को अपनी पहचान छोड़ने के लिए मजबूर न होना पड़े। यह मानवता को प्राथमिकता देने और विविधता का सम्मान करने की प्रेरणा देती है।
जय हिन्द! जय भारत!!