भारत की न्यायिक प्रक्रिया में पांच जजों की बेंच(भारतीय न्यायपालिका में एक विशेष अदालत) द्वारा लिए गए फैसले अक्सर महत्वपूर्ण होते हैं, लेकिन क्या ये फैसले 140 करोड़ भारतीयों की आवाज़ को दबा सकते हैं? यह सवाल आजकल चर्चा में है, खासकर जब लोकतंत्र और जनता की राय को महत्व देने की बात होती है। इस लेख में हम इसी मुद्दे पर विचार करेंगे और समझने की कोशिश करेंगे कि क्या न्यायपालिका की कुछ सीमाएं हैं।
23 दिसंबर को राज्यसभा सांसद सस्मित पात्रा ने जो बात संसद में रखी — वो सिर्फ एक बयान नहीं था, बल्कि भारत के लोकतंत्र की आत्मा की पुकार थी। यह भाषण, पिछले एक दशक में संसद में दिए गए सबसे महत्वपूर्ण भाषणों में से एक है।
और ध्यान देने वाली बात यह है कि वह BJD के सांसद हैं — किसी एक पार्टी के प्रवक्ता नहीं।
इसलिए यह मुद्दा किसी पार्टी या नेता का नहीं, बल्कि भारतीय लोकतंत्र के मूलभूत सिद्धांतों का है।
लोकतंत्र का आधार क्या है?
लोकसभा — सीधे जनता द्वारा चुने गए सांसदों का सदन — जनता की सबसे प्रभावशाली और सीधी आवाज़ है।
लोकसभा के सांसद वही बोलते हैं जो जनता चाहती है।
राज्यसभा — राज्यों के प्रतिनिधित्व का सदन — भी एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया से जुड़ा है, क्योंकि राज्य सरकारें भी जनता द्वारा सीधे चुनी जाती हैं।
इन दोनों सदनों द्वारा बनाए गए कानून और नीतियाँ, संविधान के दायरे में रहकर, पूरे देश के लिए अनिवार्य हैं।
तो क्या न्यायपालिका या नौकरशाही इन निर्णयों को टाल सकती है?
नहीं। बिल्कुल नहीं।
न्यायपालिका का काम कानून की व्याख्या करना है, कानून बनाना नहीं।
ब्यूरोक्रेसी का काम सरकार की नीतियों को लागू करना है, उन्हें रोकना या बाधित करना नहीं। जब अदालतें या नौकरशाह किसी नीति को वैचारिक मतभेद या राजनीतिक असहमति के आधार पर रोकने का प्रयास करते हैं, तो यह सीधे-सीधे जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों का उल्लंघन होता है।
क्या यह लोकतंत्र है? या तानाशाही का दूसरा रूप?
जब 500 से अधिक सांसदों द्वारा पारित कोई कानून,
पाँच लोगों की राय पर रुक जाए,
या जब अधिकारी किसी राजनीतिक विचारधारा के कारण जनहित योजनाओं में अड़ंगे डालें —
तो यह लोकतंत्र नहीं, बल्कि लोकतंत्र का मखौल है।
हम न्यायपालिका और प्रशासन का सम्मान करते हैं।
लेकिन वे सहायक संस्थाएँ हैं, नीति निर्धारण की सर्वोच्च शक्ति संसद के पास है।जो सांसद जनता की सीधी आवाज़ हैं, उनका निर्णय सर्वोपरि होना चाहिए।
अब समय आ गया है…
जनता को जागरूक करने का,
लोकतंत्र को उसका असली स्वरूप दिलाने का,
और हर उस तत्व को पहचानने का जो जनता की आवाज़ को दबाना चाहता है,
चाहे वो किसी कुर्सी पर बैठा हो या किसी चोले में छिपा हो।
पांच जजों की बेंच भारतीय न्यायपालिका का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो संवैधानिक और जटिल मामलों में निर्णय लेने में मदद करती है। यह बेंच सुनिश्चित करती है कि न्याय का प्रत्येक पहलू गहराई से विचार किया जाए, ताकि देश की कानून व्यवस्था और संविधान की रक्षा हो सके। हालांकि, यह सवाल उठता है कि क्या कभी ऐसे फैसले जनता की आवाज़ और लोकतंत्र की भावना को दबा सकते हैं। यह हमें यह याद दिलाता है कि न्यायपालिका के फैसले सिर्फ कानूनी दृष्टिकोण से ही नहीं, बल्कि समाज के व्यापक प्रभावों को ध्यान में रखते हुए किए जाने चाहिए।
यह संसद और लोकतंत्र के सम्मान की लड़ाई है — और यह लड़ाई हम सबको मिलकर लड़नी है।
🇳🇪 जय भारत, वन्देमातरम 🇳🇪
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