— या केवल कर्मकांड और व्यापारिक धार्मिकता में फँसे हैं?
आज जब हम अपने चारों ओर धर्म का स्वरूप देखते हैं, तो पाते हैं कि सनातन धर्म को हमने सिर्फ अपनी भौतिक इच्छाओं की पूर्ति का साधन बना लिया है। चाहे शिक्षा हो, धन हो, शक्ति, यश, भौतिक सुख-सुविधाएँ या पारिवारिक कल्याण — हम इन सबके लिए धार्मिक रास्ता अपना रहे हैं। हर इच्छा के लिए एक अलग देवता है। हमें बताया जाता है कि उनकी विशेष पूजा करें, विशेष मंत्र बोलें, विशेष अनुष्ठान करें। इस प्रक्रिया में पुजारी, मंदिर और धार्मिक संस्थाएं लाभ उठाती रहती हैं, और हम श्रद्धालु केवल इच्छाओं और लाभों के फेर में उलझे रहते हैं, जबकि सनातन धर्म का असली उद्देश्य आत्मा की शुद्धि और ईश्वरप्राप्ति है।
पाप और पुण्य के भय और लालच का चक्र
आज हमारा धार्मिक जीवन अधिकतर पाप और पुण्य के चक्र में घूमता है:
- पाप का भय — कि कहीं नर्क में न जाना पड़े।
- पुण्य की लालसा — ताकि स्वर्ग मिल जाए, और वहाँ असीम सुख भोग सकें।
इस डर और लालच के कारण हम कर्मकांड में लगे रहते हैं — तरह-तरह के पूजन, यज्ञ, दान, व्रत, तीर्थयात्राएं, सिर्फ इसलिए ताकि सांसारिक सुख मिले और पाप कट जाए।
पर क्या यही धर्म है? क्या यही आत्मिक विकास है?
धर्म का व्यापार बनता जा रहा है
आज की धार्मिकता में हम देखते हैं:
- मंत्रों, गीता, रामायण, चालीसा आदि का पाठ — विशेष लाभ के लिए।
- विशेष पूजा-पाठ और अनुष्ठान — किसी विशेष इच्छा की पूर्ति के लिए।
- मंदिर यात्राएं, मेले, तीर्थ — एक प्रकार की आध्यात्मिक पर्यटन।
हालाँकि इनमें कुछ अच्छाई हो सकती है यदि भावना शुद्ध हो, लेकिन आज ये सब कुछ व्यापारिक लेन–देन जैसे हो गए हैं —
पैसा दो, पूजा कराओ, लाभ की उम्मीद रखो।
मंदिर बड़े होते जा रहे हैं, धर्मशालाएं बन रही हैं, संस्थान फैल रहे हैं —
लेकिन मन और जीवन का शुद्धिकरण नहीं हो रहा।
क्या यही सनातन धर्म है?
क्या यही कर्मकांड, डर, इच्छाएं और धर्म का व्यवसाय ही असली सनातन धर्म है?
बिलकुल नहीं।
सनातन धर्म का मूल उद्देश्य है — आत्मबोध, ईश्वरप्राप्ति और शाश्वत सत्य का अनुसरण।
यह धर्म नहीं है:
- जहाँ भगवान से सौदेबाज़ी हो।
- जहाँ पूजा केवल स्वार्थ के लिए हो।
- जहाँ धर्म केवल व्यापार और भवन निर्माण बन जाए।
भगवद गीता: सनातन धर्म का सार
हिन्दू धर्म के हजारों ग्रंथों में, भगवद गीता वह अमूल्य रत्न है, जो शुद्ध, स्पष्ट और संक्षिप्त रूप में धर्म का वास्तविक स्वरूप प्रस्तुत करती है।
वेद, पुराण, उपनिषद — ये सब एक महान सुपरमार्केट जैसे हैं:
- स्वर्ग चाहिए तो पुण्य करो।
- नरक चाहिए तो पाप करो।
- मोक्ष चाहिए तो योग करो।
- ज्ञान चाहिए तो ज्ञानयोग।
- भक्ति चाहिए तो भक्ति योग।
लेकिन गीता के अंतिम अध्याय में, भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं:
“सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥“ (गीता 18.66)
“सभी धर्मों को त्याग कर मेरी शरण में आ जाओ। मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा। चिंता मत करो।“
यही है सनातन धर्म का अंतिम और सच्चा सार —
पूरी श्रद्धा, प्रेम और समर्पण से भगवान की शरण में जाना।
धर्म की अर्थव्यवस्था: एक दुखद सच्चाई
आज धर्म की आड़ में:
- विशाल अनुष्ठान, हवन, और चढ़ावा।
- मंदिरों में भारी दान।
- अधिक से अधिक धाम, संस्थान, धर्मशालाएं।
भक्त सोचता है कि वह धर्म कर रहा है,
लेकिन उसके जीवन में सच्चाई, सेवा, प्रेम और विनम्रता नहीं आती।
धर्म केवल कर्मकांड नहीं है, यह आत्मा की शुद्धि और आत्मा का परमात्मा से मिलन है।
सच्चा सनातन धर्म क्या है?
यदि हम सच्चे सुख, शांति और मुक्ति की कामना करते हैं, तो हमें सच्चे सनातन धर्म का पालन करना होगा:
- विनम्रता और सरलता से जीवन जीना।
- सत्य, ईमानदारी, सेवा और दया का आचरण।
- क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार और ईर्ष्या को त्यागना।
- ईश्वर को भौतिक इच्छाओं के बिना, प्रेम से पाना।
- अपने मन और स्वभाव को शुद्ध करना।
- दूसरों की निःस्वार्थ सेवा करना।
कर्मकांड, दान और यात्राएं — ये सब सहायक हो सकते हैं,
पर मुख्य साधना है — मन और आत्मा का परिवर्तन।
लौटें असली धर्म की ओर
आज आवश्यकता है कि हम असली सनातन धर्म की ओर लौटें —
वह सनातन धर्म जो:
- कर्मकांड से ऊपर है,
- आडंबर और दिखावे से परे है,
- और जो सच्चे प्रेम, सेवा, भक्ति और समर्पण पर आधारित है।
यही धर्म हमें मुक्त करेगा:
- दुखों से,
- जन्म-मरण के चक्र से,
- स्वार्थ, भय, और लालच से।
यही सनातन है, यही हमारा सच्चा धर्म है।
| जय भारत, वन्देमातरम |
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