लोकतांत्रिक प्रणाली में निर्वाचित सरकार ही सर्वोच्च निर्णय लेने वाली संस्था होती है, क्योंकि इसे सीधे जनता का जनादेश प्राप्त होता है। न्यायपालिका, भले ही स्वतंत्र रूप से काम करती हो, लेकिन यह निर्वाचित सरकार के अधीन एक संवैधानिक संस्था है। इसका मुख्य कार्य कानून की व्याख्या करना और न्याय सुनिश्चित करना है, न कि निर्वाचित सरकार के फैसलों को पलटकर शासन चलाना। किसी भी लोकतांत्रिक देश में कोई भी संस्था, संगठन या बोर्ड निर्वाचित सरकार से ऊपर नहीं हो सकता।
भारत में चिंता का विषय
दुर्भाग्यवश, भारत में असंतुलन और सत्ता संघर्ष का एक नया दौर देखने को मिल रहा है, जहां वक्फ बोर्ड जैसे गैर–सरकारी और धार्मिक संगठन लोकतंत्र को चुनौती दे रहे हैं। वक्फ बोर्ड का सुप्रीम कोर्ट को धमकी देना, यह दर्शाता है कि यह धार्मिक संगठन अब भारत की न्यायिक व्यवस्था को भी चुनौती देने लगा है। यह गंभीर चिंता का विषय है कि धार्मिक संस्थाओं को न्यायिक और प्रशासनिक फैसलों में हस्तक्षेप करने की छूट क्यों दी जा रही है।
इस संकट को और बढ़ाने वाला एक और पहलू यह है कि भारत का सर्वोच्च न्यायालय भी अब अपनी संवैधानिक सीमाओं को लांघ रहा है और निर्वाचित सरकार के कार्यों में हस्तक्षेप कर रहा है। न्यायपालिका का कार्य शासन करना नहीं, बल्कि संविधान के अनुरूप कानून की व्याख्या करना है, लेकिन हाल ही में कई मामलों में न्यायपालिका की भूमिका सरकारी प्रशासन को प्रभावित करने वाली होती दिख रही है।
लोकतंत्र के लिए यह खतरा क्यों है?
न्यायिक अतिक्रमण (Judicial Overreach)
- सुप्रीम कोर्ट कई मामलों में उन क्षेत्रों में हस्तक्षेप कर रहा है, जो पूरी तरह सरकार के अधिकार क्षेत्र में आते हैं।
- जनता द्वारा चुनी गई सरकार को ऐसे न्यायाधीशों द्वारा बाधित नहीं किया जाना चाहिए, जो जनता के प्रति सीधे जवाबदेह नहीं हैं।
वक्फ बोर्ड का असीमित अधिकार
- वक्फ बोर्ड एक धार्मिक संस्था होते हुए भी एक समानांतर प्रशासनिक शक्ति की तरह कार्य कर रहा है।
- इसे विशेष भूमि अधिकार और अन्य धार्मिक संस्थाओं की तुलना में अधिक सुविधाएं प्राप्त हैं, जिससे देश के धर्मनिरपेक्ष ढांचे (Secular Framework) को असंतुलित किया जा रहा है।
- वक्फ बोर्ड का सुप्रीम कोर्ट तक को चुनौती देना यह दर्शाता है कि एक धार्मिक समूह के पास लोकतांत्रिक संस्थाओं से अधिक शक्ति संचित हो रही है, जो कि लोकतंत्र के लिए खतरनाक है।
निर्वाचित सरकार को कमजोर करना
- जब न्यायपालिका और धार्मिक संस्थाएं सरकार के फैसलों में अनावश्यक हस्तक्षेप करती हैं, तो इससे लोकतंत्र कमजोर होता है।
- देश का प्रशासन जनता द्वारा चुनी गई सरकार के हाथों में होना चाहिए, न कि न्यायपालिका या किसी धार्मिक संगठन के अधीन।
आगे क्या किया जाना चाहिए?
निर्वाचित सरकार की सर्वोच्चता को पुनः स्थापित करना
- सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि उसकी सत्ता को न्यायपालिका और धार्मिक संगठनों के हस्तक्षेप से कमजोर न किया जाए।
- सुप्रीम कोर्ट को अपने संवैधानिक दायरे में रहकर कार्य करना चाहिए और सरकार के निर्णयों में अनावश्यक बाधाएं नहीं डालनी चाहिए।
वक्फ बोर्ड के असीमित अधिकारों पर रोक लगाना
- वक्फ बोर्ड को मिली विशेष सुविधाओं और संपत्तियों का पुनर्मूल्यांकन किया जाना चाहिए।
- किसी भी धार्मिक संस्था को इतनी शक्ति नहीं दी जानी चाहिए कि वह राष्ट्रीय कानूनों और लोकतांत्रिक व्यवस्था से ऊपर उठ जाए।
लोकतांत्रिक संतुलन बनाए रखना
- भारत का प्रशासन जनता द्वारा चुनी गई सरकार के हाथों में रहना चाहिए, न कि न्यायपालिका या धार्मिक संगठनों के नियंत्रण में।
- न्यायपालिका को अपनी भूमिका में उत्तरदायित्व और संतुलन बनाए रखना चाहिए, ताकि वह कानून की व्याख्या करने का कार्य करे, न कि शासन करने का।
भारत आज एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है, जहां उसका लोकतांत्रिक ढांचा न्यायिक अतिक्रमण और धार्मिक संगठनों के अनियंत्रित प्रभाव से खतरे में है। यदि यह प्रवृत्ति जारी रही, तो लोकतंत्र की जड़ें कमजोर हो सकती हैं। यह आवश्यक है कि निर्वाचित सरकार अपनी संवैधानिक शक्ति को पुनः स्थापित करे, बाहरी हस्तक्षेप को रोके और यह सुनिश्चित करे कि देश की शासन व्यवस्था लोकतांत्रिक सिद्धांतों के अनुसार चले, न कि धार्मिक संगठनों या न्यायपालिका के प्रभाव में।