युवाओं, भारत के इतिहास के पन्नों में कई ऐसे फैसले हैं जो हमारी समझ से परे हैं। यह जरूरी है कि हम केवल प्रशंसा करने के बजाय आलोचनात्मक दृष्टिकोण से इतिहास का मूल्यांकन करें। आइए, भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा लिए गए कुछ प्रमुख निर्णयों और उनकी कीमत पर नजर डालें।
नेहरू द्वारा लिए गए कुछ फैसले जिनसे भारत को नुकसान हुआ
नेपाल का भारत में विलय का प्रस्ताव ठुकराना (1950-51)
नेपाल के राजा त्रिभुवन ने भारत में शामिल होने की इच्छा जताई थी। यह भारत के लिए सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण होता, लेकिन नेहरू ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। परिणामस्वरूप, भारत और नेपाल के संबंध कमजोर हो गए और चीन ने नेपाल पर अपना प्रभाव बढ़ा लिया।
बलूचिस्तान का प्रस्ताव ठुकराना (1948)
बलूचिस्तान के नवाब ने नेहरू को पत्र लिखकर भारत में शामिल होने का अनुरोध किया था। लेकिन नेहरू ने इसे अस्वीकार कर दिया। इसके बाद पाकिस्तान ने बलूचिस्तान पर बलपूर्वक कब्जा कर लिया, और आज यह क्षेत्र आतंकवाद का गढ़ बन गया है।
ग्वादर पोर्ट का प्रस्ताव ठुकराना (1947)
ओमान ने ग्वादर पोर्ट को भारत को देने की पेशकश की थी। यह भारत के सामरिक और आर्थिक हितों के लिए महत्वपूर्ण होता, लेकिन नेहरू ने इसे ठुकरा दिया। अब यह पाकिस्तान और चीन के नियंत्रण में है और हमारे खिलाफ उपयोग हो रहा है।
कोको द्वीप का बर्मा को दान (1950)
नेहरू ने भारत का कोको आइलैंड बर्मा को दान में दे दिया। बर्मा ने इसे चीन को बेच दिया। आज चीन इस द्वीप का उपयोग भारत की नौसेना पर नजर रखने के लिए करता है।
कावाओ वैली का नुकसान (1952)
नेहरू ने 22,327 वर्ग किलोमीटर का रमणीक क्षेत्र बर्मा को दान कर दिया। यह क्षेत्र बाद में चीन के नियंत्रण में आ गया और अब इसका उपयोग भारत की जासूसी के लिए किया जा रहा है।
1962 के भारत-चीन युद्ध में आत्मसमर्पण
नेहरू ने भारतीय वायुसेना के प्लान को ठुकराते हुए युद्ध में आत्मसमर्पण किया। इसके परिणामस्वरूप भारत ने 14,000 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र (अक्साई चिन) चीन को गंवा दिया। इस युद्ध में 3,000 से अधिक भारतीय जवान शहीद हुए।
न्यूक्लियर पावर बनने से इनकार
स्वतंत्रता के तुरंत बाद, अमेरिका ने भारत को न्यूक्लियर पावर बनने का प्रस्ताव दिया था। लेकिन नेहरू ने इसे ठुकरा दिया, जिससे भारत का वैज्ञानिक और सामरिक विकास धीमा हो गया।
UN सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता ठुकराना
नेहरू ने भारत को UN सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनने का मौका गंवा दिया और इसके बजाय चीन को इस स्थान पर प्राथमिकता दी। इसका परिणाम हम आज भी भुगत रहे हैं, जब चीन हमारे हर कदम को रोकता है।
इतिहास से सीखने की जरूरत
नेहरू के इन फैसलों ने भारत को सामरिक, आर्थिक, और राजनीतिक रूप से कमजोर किया। इन निर्णयों का मूल्यांकन करना इसलिए आवश्यक है, ताकि हम अपने भविष्य के नेताओं और नीतियों के प्रति अधिक सतर्क रहें।
युवाओं, हमें यह समझना चाहिए कि राजनीति और देशभक्ति में अंतर है।
सोशल मीडिया पर बैठे लोग, जो वर्तमान सरकार की आलोचना करते हैं, नेहरू के इन फैसलों पर चर्चा करने से कतराते हैं। उन्हें देश की चिंता नहीं, बल्कि अपनी राजनीतिक प्राथमिकताओं की चिंता है।
नेहरू की विरासत का आज का परिदृश्य
नेहरू की राजनीतिक विरासत संसद से सड़क तक देखी जा सकती है। उनके वंशजों के लक्षण आज भी कांग्रेस के नेतृत्व में झलकते हैं, जहां आरोप-प्रत्यारोप और सत्ता की ललक देशहित से ऊपर है।
युवाओं के लिए संदेश
यह जरूरी है कि हम अपने इतिहास से सीखें और अपने देश के भविष्य को मजबूत करें। नेहरू के फैसले हमें यह सिखाते हैं कि राजनीति में दूरदृष्टि और देशहित सबसे महत्वपूर्ण हैं। हमें सतर्क रहना चाहिए और देश की अखंडता और सुरक्षा को सर्वोपरि रखना चाहिए।
जय हिंद!
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