भारत की न्यायपालिका को अक्सर “न्याय की आख़िरी उम्मीद” कहा जाता है। लेकिन हाल के फैसलों को देखें तो एक चौंकाने वाला पैटर्नदिखता है –
👉 हिंदुओं और राष्ट्रवादियों के लिए: सालों की देरी, पेंडेंसी, बहाने।
👉 आतंकियों, घुसपैठियों, NGO और कट्टरपंथियों के लिए: आधी रात सुनवाई, तुरंत राहत।
यह संयोग नहीं है। यह एक व्यवस्थित न्यायिक इकोसिस्टम है जिसने करोड़ों आम भारतीयों का विश्वास हिला दिया है।
📊 लंबित मामले और देरी – आम भारतीयों के लिए न्याय से वंचना
- सुप्रीम कोर्ट के आँकड़ों के अनुसार 80,000 से अधिक मामले SC में और कुल मिलाकर 5 करोड़ से अधिक मामले न्यायपालिका में लंबित हैं।
- एक आम केस की उम्र? 10–15 साल।
- जमीन विवाद, हत्या, बलात्कार, मंदिर मामले – दशकों तक लटकते रहते हैं।
लेकिन जब बात आती है –
- आतंकी की दया याचिका,
- किसी NGO की याचिका,
- या राजनीतिक संवेदनशील मामला…
👉 अचानक कोर्ट “स्पीड मोड” में आ जाता है।
🕉️ कश्मीरी पंडित – 35 साल से न्याय की प्रतीक्षा
1990 का पलायन और नरसंहार भारत का न्यायिक न्यूरेंबर्ग ट्रायलहोना चाहिए था। लेकिन हुआ क्या?
- FIR कमज़ोर रही।
- केस टलते रहे।
कोई “आधी रात की सुनवाई” नहीं हुई।
निर्भया केस (2012)में दबाव से तेज सुनवाई हुई (फिर भी 7 साल लगे)। लेकिन कश्मीरी पंडितों के लिए कभी वैसी तत्परता नहीं दिखाई गई।
🐕 स्ट्रीट डॉग केस – राष्ट्रीय मज़ाक
हाल ही में आवारा कुत्तों के मामले में NGO ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दी। 10 दिन के भीतर सुनवाई हो गई और निर्णय भी आ गया।
सोचिए:
- कुत्ते → 10 दिन
- कश्मीरी पंडित → 35 साल
यह दया नहीं, बल्कि गलत प्राथमिकता है।
🚨 अन्य उदाहरण
1. याकूब मेमन (1993 बम धमाके)
- आधी रात को कोर्ट खुला।
- अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में “मानवाधिकार” केस बन गया।
किसी कश्मीरी पंडित परिवार को कभी आधी रात सुनवाई मिली? नहीं।
2. अफ़ज़ल गुरु (2001 संसद हमला)
- केस सालों तक लटका।
- तथाकथित मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने उसे “शहीद” बनाने की कोशिश की।
कश्मीरी हिंदू नरसंहार पर वही कार्यकर्ता चुप।
3. शाहीन बाग (CAA विरोध)
- महीनों सड़कें जाम। आम जनता परेशान।
- कोर्ट ने तुरंत हटाने का आदेश देने के बजाय इसे “प्रदर्शन का अधिकार” बताया।
4. रोहिंग्या निर्वासन
- सरकार ने घुसपैठियों को निकालने की कोशिश की।
- कोर्ट तुरंत हरकत में आया।
लेकिन स्थानीय पीड़ितों की बात किसी ने नहीं सुनी।
5. हिंदू मंदिर और स्थल
- राम जन्मभूमि → 134 साल।
- ज्ञानवापी → लगातार टालमटोल।
- मथुरा जन्मभूमि → “स्टेटस क्वो” में फंसी।
जबकि मस्जिद/चर्च मामलों पर फास्ट-ट्रैक सुनवाई।
- क्या यह सब देश-विरोधी और सनातन विरोधी मानसिकता की ओर इशारा नहीं कर रहा है?
❓ एक लाइन में दोहरा मापदंड
- हिंदुओं/राष्ट्रवादियों के लिए: Justice Delayed = Justice Denied.
- आतंकियों/NGO के लिए: Justice Express = Justice Misused.
⚠️ असली खतरा
यह सिर्फ़ न्याय में देरी नहीं है, बल्कि:
- संस्थाओं में विश्वास खत्म करना।
- बहुसंख्यकों में असंतोष पैदा करना।
- बाहरी हस्तक्षेप के लिए दरवाज़ा खोलना।
हमें सावधान रहना होगा।
न्यायपालिका को तय करना होगा:
- क्या वह भारत के आम नागरिक, करदाता और देशभक्त का संरक्षक है?
- या आतंकियों, घुसपैठियों और NGO का छाता?
जब कुत्तों को 10 दिन में न्याय और कश्मीरी पंडित 35 साल से इंतज़ार करें, तो यह न्याय नहीं – विश्वासघात है।
- अगर यह असंतुलन नहीं सुधरा तो न्यायपालिका को “न्याय का मंदिर” नहीं बल्कि “अन्याय का किला” कहा जाएगा।
🇮🇳 जय भारत, वन्देमातरम 🇮🇳
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