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न्यायपालिका का निर्णायक

न्यायपालिका का निर्णायक मोड़: निष्क्रिय तटस्थता से सभ्यतागत दायित्व तक

भारत की न्यायिक चेतना, धर्मिक जिम्मेदारी एवं राष्ट्रीय समरसता पर गहन दृष्टि

🔱 1. पिछले 70 वर्षों की अनदेखी गई वास्तविकता

स्वतंत्रता के बाद दशकों तक भारतीय न्यायपालिका ने अपनाया:

  • ब्रिटिश विधिक ढांचा
  • औपनिवेशिक न्याय मॉडल
  • धर्मनिरपेक्षता की अतिवादी व्याख्या
  • भारतीय सभ्यता से वैचारिक दूरी वाली तटस्थता

इसी मानसिकता के कारण:

  • आतंकवादियों को दया याचिका मिली
  • अलगाववादियों को मीडिया सहानुभूति मिली
  • भारत-विरोधी अभियान “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” के नाम पर छिपे
  • मंदिर सरकार के अधीन रहे, उनके अधिकार बहाल नहीं हुए

और जब:

  • कश्मीरी हिंदू उजाड़े गए
  • मंदिर तोड़े गए
  • दुर्गा विसर्जन रोका गया
  • दीपावली पर प्रतिबंध लगाए गए
  • सबरीमाला परंपरा की अस्मिता भंग की गई

तब भी हिंदू पहचान को कानूनी अधिकार नहीं, सिर्फ धार्मिक भावुकता मानकर नजरअंदाज किया गया।

  • यही वह बिंदु था जहाँ संवैधानिक अधिकार और सभ्यतागत सत्य के बीच खाई इतनी बढ़ी कि भारत का सांस्कृतिक मेरुदंड टूटने लगा।

🔱 2. नई न्यायिक दृष्टि: बदलती आवाज़, बदलता स्वर

न्यायपालिका के हालिया परिवर्तन मैं नए कजी सूर्यकान्त शर्मा के आगमन से सिर्फ चेहरा ही नहीं बदल अरन न्यायपालिका का दृष्टिकोण बदलता नजर या रहा है।

आज न्यायालय स्वीकार कर रहा है कि:

  • धर्म = संप्रदाय नहीं, सभ्यता का दायित्व
  • सनातन = भारत की निरंतर आत्मा
  • सरकार और न्यायपालिका प्रतिस्पर्धी नहीं, सह-अभिभावक हैं

उनकी हाल की टिप्पणियाँ संकेत देती हैं:

  • दृढ़ता, बिना दुर्भाव
  • संविधान, बिना वैचारिक ग्रंथि
  • पारदर्शिता, बिना न्यायिक सक्रियता
  • राष्ट्र हित, बिना अपराधबोध

दशकों बाद पहली बार न्याय व्यवस्था पश्चिमी विमर्श से हटकर भारतीय न्याय–चेतना में प्रवेश कर रही है।

🔱 3. NJAC: सुधार नहीं, जवाबदेही की वापसी

आज जो बहस चल रही है:

  • कोलेजियम की गोपनीयता
  • स्व-नियुक्ति संस्कृति
  • समीक्षा व जवाबदेही का अभाव
  • ये प्रशासनिक परिवर्तन नहीं, संवैधानिक संतुलन की पुनर्स्थापनाहै।

क्यों आवश्यक है NJAC:

  • न्यायाधीश सदैव स्वयं को नियुक्त नहीं कर सकते
  • कोई स्तंभ जनता से ऊपर नहीं
  • सिफारिश नहीं, योग्यता आधार बने
  • राष्ट्रहित समूह–संस्कृति से ऊपर हो

30 वर्षों तक न्यायपालिका रही:

  • बंद कमरों का अधिकार ढांचा
  • सीमित अभिजात वर्ग
  • परस्पर पदोन्नति तंत्र

अब पहली बार:

  • सार्वजनिक पारदर्शिता
  • संस्थागत उत्तरदायित्व
  • संविधान आधारित भागीदारी

यह दखल नहीं, लोकतांत्रिक परिपक्वता है।

🔱 4. जब कार्यपालिका–न्यायपालिका एक सुर में हों, तब राष्ट्र उठते हैं

राष्ट्र तब गिरते हैं जब:

  • न्यायपालिका सिर्फ विरोध के लिए सरकार को रोके
  • सरकार न्याय व्यवस्था को नजरअंदाज करे
  • संस्थाएँ अहंकार में प्रतिस्पर्धी बनें

राष्ट्र तब उठते हैं जब:

  • सरकार सुरक्षा, विकास और सुधार संभाले
  • न्यायपालिका परंपरा, धर्म-अधिकार और न्याय संतुलन की रक्षा करे
  • दोनों राष्ट्रीयता में समवेत हों

1947 के बाद पहली बार आज:

  • कार्यपालिका = राष्ट्रवादी, निर्णायक, स्थिर
  • न्यायपालिका = जागृत, संतुलित, सभ्यतागत, चेतनायुक्त

यही संगम था जो हमें 75 वर्षों से नहीं मिला था।

🔱 5. कांग्रेस काल में जो टूटा

आजादी के पहले 65 वर्षों में:

  • धर्मिक आत्मा कमजोर की गई
  • मंदिर संपत्तियाँ सरकारी गिरफ्त में रहीं
  • इतिहास तोड़ा-मरोड़ा गया
  • शिक्षा धर्म–विहीन हुई
  • न्यायालय वैचारिक प्रभाव में रहे
  • सुरक्षा बल बाधित हुए

भारत बन गया:

  • धर्म के लिए क्षमाप्रार्थी
  • सुरक्षा में बंधित
  • संस्कृति में उपनिवेशीकृत

फिर मोदी युग आया:

  • न्यायपालिका सम्मानित हुई
  • संविधान का आत्मप्रकाश बढ़ा
  • राष्ट्र का वैश्विक कद पुनर्स्थापित हुआ

सरकार ने पहचान जगाई, न्यायालय ने अंतरात्मा पुनर्जीवित की।

🔱 6. न्यायिक परिवर्तन में मोदी की भूमिका

मोदी ने कोई दबाव नहीं डाला, उन्होंने उदाहरण दिया—

  • ईमानदारी बिना सौदेबाज़ी
  • राष्ट्रवाद बिना अपराधबोध
  • शासन बिना भ्रष्टाचार

इसके परिणाम:

  • G20 नेतृत्व
  • ऑपरेशन सिंदूर की सटीकता
  • ग्लोबल साउथ में केंद्र भूमिका
  • BRICS मुद्रा विमर्श
  • इज़राइल–भारत रणनीतिक समानता

>जब कार्यपालिका नैतिक होती है, तब न्यायपालिका संशय से मुक्त होती है।

:जब न्यायपालिका राष्ट्रवादी होती है, तब शासन सभ्यता के रक्षण में सफल होता है।

🔱 7. यह झुकाव नहीं—यह समरसता है

विपक्ष का आरोप:

  • “न्यायपालिका नियंत्रित”
  • “शक्ति–विभाजन खत्म”

सत्य इसके ठीक विपरीत:

  • न्यायपालिका झुकी नहीं
  • न्यायपालिका जाग रही है
  • न्यायपालिका धर्म-आधारित कर्तव्य पर लौट रही है
  • सच्चा शक्ति-विभाजन प्रतिस्पर्धा नहीं, पूरकता है।

भारत जैसे सभ्यतागत राष्ट्र में संस्थाओं का दायित्व सिर्फ संचालन नहीं, सभ्यता की रक्षा है।

🔱 8. यह क्षण राजनीतिक नहीं, सभ्यतागत है

आज एक धुरी पर संरेखित हैं:

  • धर्म
  • संविधान
  • न्यायपालिका
  • राष्ट्र

यह किसी अल्पसंख्यक के विरुद्ध नहीं, बल्कि:

  • आतंक नेटवर्क
  • जनसंख्या जिहाद
  • विदेशी प्रायोजित अलगाव
  • सांस्कृतिक विनाश
  • भारत विरोधी कथा तंत्र के विरुद्ध है।

भारत को ऐसी न्यायपालिका चाहिए जो विनाश पर तटस्थ न रहे, बल्कि सभ्यता पर जागरूक रहे।

🔱 9. इस न्यायिक युग की विरासत

यदि यह न्यायिक पुनर्जागरण:

  • मंदिर स्वायत्तता बहाल करे
  • कोलेजियम सुधार लागू करे
  • परंपरा–आधारित धर्म स्वतंत्रता सुरक्षित करे
  • सुरक्षा बलों के अधिकार मज़बूत करे
  • विदेशी NGO प्रभाव नियंत्रित करे
  • सभ्यतागत निरंतरता को मान्यता दे

तो इतिहास लिखेगा:

  • धर्म और संस्कृति का पुनर्जागरण मोदी ने आरंभ किया, और न्यायपालिका ने उसे वैधता दी।

यह कानूनी परिवर्तन नहीं, सभ्यतागत उपचार है। उस हमले का जो हमारे धर्म और संस्कृति पर सदियों से हो रहा था।

🇮🇳 जय भारत, वन्देमातरम 🇮🇳

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