- जब भी रोहिंग्या मुसलमानों की चर्चा होती है, तथाकथित सेकुलर, वामपंथी और पश्चिमी मानवाधिकारवादी हमेशा यही दिखाते हैं कि निर्दोष रोहिंग्या मुसलमान अल्पसंख्यकों पर अत्याचार हुआ।
- लेकिन सच्चाई इससे बिल्कुल उलटी है। रोहिंग्या मुसलमान शांति–प्रिय शरणार्थी नहीं बल्कि कट्टरपंथी जिहादी हैं, जिन्होंने बर्मा (म्यांमार) में बौद्धों के नरसंहार और देश को तोड़ने की साज़िश की।
🔻 बर्मा का इतिहास और रोहिंग्या की जिहादी मानसिकता
- 1947 में भारत और पाकिस्तान का विभाजन हुआ। मुसलमानों ने पाकिस्तान के लिए लाखों हिंदुओं और सिखों का नरसंहार किया। उसी समय बर्मा के रोहिंग्या मुसलमानों ने भी बौद्धों का कत्लेआम शुरू किया और मांग की कि बर्मा के अराकान (माउ) क्षेत्र को पाकिस्तान में शामिल किया जाए।
- द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटिशों ने इन्हें हथियार दिए कि ये जापान से लड़ें। लेकिन इन हथियारों से इन्होंने अपने ही देशवासियों को मारा। लगभग 20,000 बौद्धों की हत्या की गई और अनगिनत बौद्ध महिलाओं का बलात्कार किया गया।
- 1946 में जब जिन्ना ने रोहिंग्याओं की यह मांग ठुकरा दी कि अराकान पाकिस्तान में शामिल हो, तो इनकी हिंसा और बढ़ गई। इन्होंने आतंकी गिरोह बनाए, पाकिस्तान जाकर ट्रेनिंग ली और बौद्धों पर हमले शुरू किए।
🔻 विराथु और बौद्ध समाज का प्रतिकार
- दशकों तक बौद्ध समाज इन जिहादी हमलों से त्रस्त रहा। फिर एक बौद्ध भिक्षु विराथु ने आवाज उठाई। उनका कथन था—
👉 “आप चाहे कितने भी शांतिप्रिय क्यों न हों, लेकिन पागल कुत्तों के साथ नहीं रह सकते।” - उन्होंने 2001 में “969 आंदोलन” शुरू किया—बौद्ध केवल उन्हीं दुकानों से सामान खरीदेंगे जिन पर 969 लिखा होगा। इसका उद्देश्य था मुस्लिम व्यापारियों का आर्थिक बहिष्कार करना।
- 2012 में जब एक बौद्ध महिला के साथ बलात्कार और हत्या हुई, तो पूरा बर्मा जल उठा। जनता ने हथियार उठा लिए। बौद्ध समाज अब खामोश नहीं रहा और रोहिंग्या मुसलमानों को चुन-चुनकर बाहर निकाला गया।
- संयुक्त राष्ट्र की विशेष प्रतिनिधि यांग ली ने बर्मा का दौरा कर विराथु की आलोचना की। लेकिन विराथु ने डटकर जवाब दिया—
👉 “बर्मा की रक्षा बर्मी करेंगे। हमें आपकी सलाह की ज़रूरत नहीं।”
यही वह क्षण था जब पूरा समाज एकजुट होकर खड़ा हुआ और रोहिंग्या आतंक का सफाया शुरू किया।
🔻 आज की स्थिति – दर-बदर शरणार्थी
आज यही रोहिंग्या मुसलमान पूरी दुनिया में शरणार्थी बनकर भटक रहे हैं। भारत के सेकुलर और विपक्षी दल इन्हें बसाने की कोशिश कर रहे हैं ताकि ये उनका “वोट-बैंक” बन सकें। लेकिन सवाल है—
👉 जब दुनिया में 57 मुस्लिम देश हैं तो वे इन्हें क्यों नहीं अपनाते?
जवाब साफ़ है—क्योंकि सभी जानते हैं कि जहाँ ये बसते हैं, वहाँ आतंक, हिंसा और जनसंख्या विस्फोट शुरू हो जाता है।
🔻 यूरोप का अनुभव – चेतावनी
यूरोप ने मानवता के नाम पर लाखों मुस्लिम शरणार्थियों को जगह दी।
नतीजा? आज जर्मनी, फ्रांस, स्वीडन और UK जैसे देशों में:
- मुस्लिम आबादी तेज़ी से बढ़ रही है।
- यूरोपियनों की “लिव-इन रिलेशनशिप” और कम बच्चों की प्रवृत्ति ने डेमोग्राफिक संतुलन बिगाड़ दिया।
- अब कई शहरों में मुसलमान शरिया कानून लागू करने की मांग कर रहे हैं।
यूरोप अपनी ही गलती से अपने अस्तित्व को खतरे में डाल रहा है।
🔻 अमेरिका भी उसी रास्ते पर
अमेरिका ने भी “मानवता” के नाम पर इन्हें जगह दी। आज वहाँ भी कट्टरपंथी नेटवर्क और मस्जिदों के जरिए समाज में पकड़ मजबूत हो रही है। अगर अमेरिका सावधान नहीं हुआ तो उसकी स्थिति भी यूरोप जैसी होगी।
🔻 जिन देशों ने बचाव किया
इसके विपरीत, चीन, जापान, म्यांमार और ऑस्ट्रेलिया ने कड़े कानून बनाकर इस समस्या को काबू में किया। धार्मिक कट्टरता पर रोक, अवैध प्रवासियों पर सख्त कार्रवाई और निगरानी ने इन्हें सुरक्षित रखा।
🔻 असली सवाल – मानवता किसके लिए?
दुनिया को यह समझना होगा कि आप उन लोगों पर मानवता का पैमाना लागू नहीं कर सकते जिनकी विचारधारा ही कहती है—काफ़िरों (ग़ैर-मुसलमानों) को मारो और जन्नत में 72 हूरें पाओ।
👉 ऐसे लोगों से निपटने का तरीका सिर्फ़ एक है—युद्ध स्तर पर वैश्विक सहयोग से इन्हें जड़ से उखाड़ना।
🔻 भारत और इज़राइल – लड़ाई की अगुवाई
भारत और इज़राइल इस खतरे को सबसे गंभीरता से ले रहे हैं क्योंकि इनका अस्तित्व ही दांव पर है। बाकी देशों को भी इनके साथ खड़ा होना होगा। वरना कल पूरी दुनिया को वही भुगतना पड़ेगा जो आज यूरोप झेल रहा है और जो बर्मा ने दशकों पहले भुगता था।
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