भारत में माता-पिता अपने बच्चों के भविष्य के लिए अत्यधिक त्याग करते हैं। वे अपने सुखों को बलिदान कर, अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दिलाने के लिए हर संभव प्रयास करते हैं। लेकिन क्या हमने कभी सोचा है कि हमारी संस्कृति, नैतिकता और पारिवारिक मूल्यों को शिक्षा के नाम पर किनारे कर दिया गया है?
आज का युवक जब विदेश जाता है, तो उसके पास सब कुछ होता है—धन, ऐश्वर्य, सम्मान, साधन और सुविधाएँ। लेकिन वह अपने ही माता-पिता से हजारों किलोमीटर दूर होता है, जो बुढ़ापे में अकेले, बीमार और असहाय रह जाते हैं।
त्याग के बदले एकाकीपन—कौन जिम्मेदार?
एक पिता जिसने बेटे की हर इच्छा पूरी की, उसे सर्वश्रेष्ठ शिक्षा दिलाने के लिए खुद अभाव में जिया, उसी पिता को अब बुढ़ापे में अकेलेपन की सजा क्यों मिल रही है?
📌 माता–पिता ने ही बच्चों को पैसे और पद का महत्व सिखाया, संस्कारों को नहीं।
📌 उन्हें मंदिर की जगह महंगे स्कूल भेजा, जिससे वे बचपन से ही भौतिकवाद की दौड़ में शामिल हो गए।
📌 खेल के मैदान की जगह कोचिंग, पड़ोस के दोस्तों की जगह प्रतियोगिता सिखाई।
📌 राष्ट्रप्रेम, परिवारप्रेम की जगह पश्चिमी सभ्यता की चकाचौंध में आकर्षण पैदा किया।
आज जब वही बेटा पैसा और सफलता की ऊँचाइयों पर पहुँच गया, तो क्या माता-पिता यह नहीं सोचते कि उसने वही किया जो उसे सिखाया गया था?
क्या यह सिर्फ़ पुत्र का दोष है?
एक बेटा जब बुजुर्ग माँ–बाप के अकेलेपन और तकलीफ को महसूस करता है, तो वह अपने दिल की बात एक पत्र में लिखता है। वह कहता है:
“पिताजी, मैं अमेरिका में हूँ, आपके आशीर्वाद से। आपके सिखाए मूल्यों ने मुझे इस स्थान तक पहुँचाया, लेकिन मुझे यह कभी नहीं सिखाया गया कि माता–पिता से दूर रहना कितना कष्टदायक होगा।“
“आज मैं चाहता हूँ कि आपकी सेवा करूँ, आपके पास बैठूँ, लेकिन मैं आ नहीं सकता, क्योंकि मुझे ही बचपन से यही सिखाया गया कि करियर, पैसे और प्रतिष्ठा सबसे ज़रूरी हैं।“
“क्या यह सिर्फ मेरी गलती है?”
क्या हमें अपनी शिक्षा व्यवस्था पर पुनर्विचार नहीं करना चाहिए?
बच्चों को उच्च शिक्षा देना जरूरी है, लेकिन क्या हमें संस्कारों, राष्ट्रप्रेम और परिवार के प्रति कर्तव्यों की शिक्षा भी नहीं देनी चाहिए?
✅ क्या हमें बच्चों को यह नहीं सिखाना चाहिए कि धन से ज़्यादा महत्वपूर्ण माता–पिता की सेवा है?
✅ क्या हमें यह नहीं सिखाना चाहिए कि शिक्षा केवल नौकरी पाने के लिए नहीं, बल्कि एक अच्छा इंसान बनने के लिए भी होती है?
✅ क्या हमें अपनी संस्कृति और परंपराओं को आधुनिकता की दौड़ में भुला देना चाहिए?
अगर आज हम नहीं चेते, तो कल हमारी आने वाली पीढ़ियाँ भी यही करेंगी। हमारे अपने बच्चे भी हमें छोड़कर विदेश चले जाएँगे, और हम भी उसी अकेलेपन की सजा भुगतेंगे, जैसी आज कई बुजुर्ग माता-पिता भुगत रहे हैं।
आगे क्या? समाधान क्या है?
✔ बच्चों को बचपन से ही पारिवारिक मूल्यों का महत्व समझाएँ।
✔ उन्हें सिर्फ पैसे और करियर की नहीं, बल्कि माता–पिता की सेवा और कर्तव्य का महत्व भी सिखाएँ।
✔ भौतिकवाद की जगह संतोष, त्याग, और रिश्तों की गरिमा सिखाएँ।
✔ संस्कारों के साथ शिक्षा का संतुलन बनाएँ।
🚩 **शिक्षा अत्यंत महत्वपूर्ण है, लेकिन बिना संस्कारों के शिक्षा अधूरी है।**🚩
अब यह फैसला हर माता–पिता को करना होगा कि वे अपने बच्चों को केवल सफल बनाना चाहते हैं या संस्कारी भी।
🙏 सोचिए, मनन कीजिए और आगे बढ़िए! 🙏
🇳🇪 जय भारत, वन्देमातरम🇳🇪