उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ का गंभीर चेतावनी भरा संदेश
भारत के उपराष्ट्रपति श्री जगदीप धनखड़ ने एक ऐसा मुद्दा उठाया है, जो आज के लोकतांत्रिक भारत की संवैधानिक मर्यादा और संस्थागत संतुलन पर गहन प्रभाव डाल सकता है। उन्होंने बहुत स्पष्ट और साहसिक शब्दों में कहा कि सुप्रीम कोर्ट अब “सुपर संसद” जैसा व्यवहार कर रही है, जो कि संविधान के मूल ढांचे के बिल्कुल विपरीत है।
⚖️ सुप्रीम कोर्ट बनती जा रही है ‘अधिनायक संस्था’?
धनखड़ जी की नाराजगी खासतौर पर सुप्रीम कोर्ट की उस हालिया पहल को लेकर है, जिसमें उसने राष्ट्रपति और राज्यपालों को समयसीमा में बिल मंजूरी देने का निर्देश दिया। यह पहली बार नहीं है जब अदालत कार्यपालिका के क्षेत्र में हस्तक्षेप करती दिख रही है, लेकिन इस बार निशाने पर खुद भारत के राष्ट्रपति पद को लाया गया, जो कि संविधान की सर्वोच्च संवैधानिक संस्था है। उपराष्ट्रपति का यह कहना कि “हम ऐसी स्थिति नहीं बना सकते जहाँ अदालतें भारत के राष्ट्रपति को आदेश दें“, एक गंभीर चेतावनी है कि न्यायपालिका अगर अपने दायरे से बाहर जाकर कार्य करेगी, तो वह देश की लोकतांत्रिक संरचना को असंतुलित कर देगी।
💣 अनुच्छेद 142 – लोकतंत्र के खिलाफ ‘परमाणु मिसाइल’?
धनखड़ जी ने विशेष रूप से अनुच्छेद 142 का उल्लेख करते हुए कहा कि यह संविधान द्वारा सुप्रीम कोर्ट को दिया गया विशेषाधिकार अब लोकतांत्रिक शक्तियों के विरुद्ध एक 24×7 परमाणु मिसाइल बन चुका है।
इस अनुच्छेद के तहत सुप्रीम कोर्ट “पूर्ण न्याय” के लिए कोई भी आदेश, निर्देश या फैसला दे सकती है, लेकिन अब इसका दुरुपयोग कर कार्यपालिका और विधायिका के क्षेत्र में घुसपैठ की जा रही है।
💼 जज पर मिला कैश, FIR नहीं – कौन जिम्मेदार?
उपराष्ट्रपति ने न्यायपालिका की कथित पाखंडपूर्ण निष्क्रियता की भी कड़ी आलोचना की, जब एक जज के घर करोड़ों रुपये नकद पाए गए और एक महीना बीत जाने के बावजूद FIR तक दर्ज नहीं हुई।
उन्होंने प्रश्न किया कि “क्या जांच करना न्यायपालिका का काम है?” जवाब था – “नहीं।” यह कार्य तो कार्यपालिका का है, लेकिन एक समिति गठित कर दी गई जो जांच कर रही है – एक ऐसी समिति जिसकी कोई संवैधानिक वैधता नहीं है, और जो संसद द्वारा पारित किसी कानून के अधीन नहीं है।
धनखड़ जी ने यहां तक कहा कि,
“क्या यह समिति संविधान के अधीन है? नहीं। क्या उसे किसी वैधानिक प्रक्रिया से अधिकृत किया गया है? नहीं। क्या वह दंडात्मक निर्णय ले सकती है? नहीं। केवल संसद ही कार्रवाई कर सकती है।”
👨⚖️ CJI को न मिले “वीटो पावर” – न्यायपालिका में सत्ता का केंद्रीकरण खतरनाक
धनखड़ जी ने यह भी चेताया कि अगर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश (CJI) को “वीटो पावर” या असीमित शक्ति दे दी गई, तो यह भविष्य में संवैधानिक संकट उत्पन्न कर सकता है।
संविधान में न्यायिक व्याख्या का अधिकार अनुच्छेद 145(3) में पांच या अधिक न्यायाधीशों की पीठ को दिया गया है, लेकिन आज जब सुप्रीम कोर्ट में 30 न्यायाधीश हैं, तब केवल 5 जजों द्वारा लिए गए निर्णय को कैसे देश का कानून माना जा सकता है?
लोकतंत्र का संतुलन बिगाड़ रही है न्यायपालिका की अति–सक्रियता?
उपराष्ट्रपति का यह भाषण एक स्पष्ट संकेत है कि अगर लोकतंत्र के तीनों स्तंभों – विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका – में से कोई एक अपनी सीमा लांघेगा, तो यह भारत जैसे संविधान आधारित लोकतंत्र को तानाशाही की ओर ले जा सकता है।
उन्होंने अंत में बड़ी ही संवेदनशील बात कही –
“क्या हम ‘हम भारत के लोग’ के प्रति जवाबदेह नहीं हैं, जिन्होंने हमें यह संविधान सौंपा है?”
एक चेतावनी, एक अवसर
उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ का यह बयान सिर्फ आलोचना नहीं है – यह एक संविधान को बचाने की पुकार है। यह न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका को यह याद दिलाने की कोशिश है कि भारत में सर्वोच्च सत्ता “संविधान” है, न कि कोई संस्था या पद।
यदि न्यायपालिका सच में न्याय की रक्षक है, तो उसे भी जवाबदेही और मर्यादा के भीतर रहकर काम करना होगा। अन्यथा, यह ‘न्याय का मंदिर’ धीरे-धीरे एक ‘राजनीतिक शक्ति केंद्र’ बन जाएगा – जो कि भारतीय लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा साबित हो सकता है।
| जय भारत, वन्देमातरम |
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