उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने भोपाल में जुडिशल अकादमी में अपने भाषण के दौरान न्यायपालिका के बढ़ते हस्तक्षेप और अहंकार पर सीधा प्रहार किया। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि न्यायपालिका को अपनी सीमाओं में रहना चाहिए और विधायिका एवं कार्यपालिका के कार्यों में अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।
लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या सत्ता के अहंकार में डूबे न्यायाधीश इस सच्चाई को स्वीकार करेंगे? शायद नहीं, क्योंकि कई न्यायाधीश स्वयं को संविधान से ऊपर और ‘धरती का भगवान‘ समझ बैठे हैं।
उपराष्ट्रपति धनखड़ का बड़ा सवाल: कार्यपालिका में न्यायपालिका का दखल क्यों?
उपराष्ट्रपति ने बड़ा स्पष्ट सवाल उठाया कि हम भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) को किसी कार्यकारी नियुक्ति (Executive Appointment) में कैसे शामिल कर सकते हैं? उन्होंने कहा कि निर्वाचित सरकार की जवाबदेही जनता के प्रति होती है, जबकि न्यायपालिका की नहीं।
उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि:
- कानून बनाने और संविधान में संशोधन का अधिकार केवल भारतीय संसद को है, न कि सुप्रीम कोर्ट को।
- अनुच्छेद 145(3) के तहत कानून की व्याख्या का अर्थ यह नहीं कि न्यायपालिका खुद को विधायिका से ऊपर समझे।
- जब कार्यपालिका जजों की नियुक्ति में दखल नहीं देती, तो फिर चीफ जस्टिस कार्यपालिका की नियुक्ति में हस्तक्षेप क्यों करते हैं?
न्यायपालिका की निरंकुशता पर सवाल
उपराष्ट्रपति ने सीबीआई डायरेक्टर की नियुक्ति प्रक्रिया पर भी सवाल उठाए। उन्होंने पूछा कि मुख्य न्यायाधीश (CJI) आखिर किस आधार पर इस चयन प्रक्रिया का हिस्सा बनते हैं? क्या इसके लिए कोई कानूनी प्रावधान है?
उन्होंने स्पष्ट कहा कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में CJI को किसी भी कार्यकारी नियुक्ति में भूमिका नहीं निभानी चाहिए।
क्या न्यायपालिका जवाबदेह है?
धनखड़ ने न्यायपालिका की कार्यशैली पर गंभीर सवाल उठाए:
- कोर्ट कार्यपालिका के हर मामले में हस्तक्षेप करता है, लेकिन खुद किसी के प्रति जवाबदेह नहीं है।
- किसानों के आंदोलन पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा बनाई गई विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट 8 महीने तक दबाकर रखी गई। RTI में पूछे जाने पर भी कोई जवाब नहीं दिया गया।
- लोकपाल नियुक्ति, CBI डायरेक्टर चयन, और चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं में न्यायपालिका का दखल तानाशाही मानसिकता को दर्शाता है।
- जब NJAC कानून में कार्यपालिका को न्यायपालिका की नियुक्तियों में भूमिका दी गई, तो सुप्रीम कोर्ट ने इसे अस्वीकार कर दिया, लेकिन खुद कार्यपालिका के मामलों में दखल देता है।
कॉलेजियम सिस्टम: गैर–संवैधानिक और भ्रष्टाचार का अड्डा?
धनखड़ ने यह भी कहा कि कॉलेजियम सिस्टम संविधान में कहीं नहीं लिखा है और यह भ्रष्टाचार एवं भाई–भतीजावाद का अड्डा बन चुका है। सुप्रीम कोर्ट को यह नहीं भूलना चाहिए कि कानून बनाने का अधिकार केवल संसद के पास है।
उन्होंने यह भी इशारा किया कि मोदी सरकार न्यायपालिका का पूरा सम्मान करती है, लेकिन उसे संविधान से ऊपर जाने की इजाजत नहीं दी जा सकती।
क्या अब न्यायपालिका में कोई सुधार होगा?
उपराष्ट्रपति धनखड़ ने न्यायपालिका को आईना दिखाकर देश की जनता को सच से अवगत कराया। लेकिन सवाल यह है कि क्या अहंकारी जज इस कटु सत्य को स्वीकार करेंगे?
सुप्रीम कोर्ट को अब यह समझना होगा कि वह विधायिका और कार्यपालिका से ऊपर नहीं है। उसे संविधान और लोकतंत्र की मर्यादा का पालन करना ही होगा।
“संविधान सर्वोपरि है – न कि न्यायपालिका का अहंकार!”
🇮🇳 जय हिंद! वंदे मातरम्! 🇮🇳