कल AKTK चैनल पर दो ऐतिहासिक उदाहरणों का ज़िक्र किया गया, जो जाति और नस्ल आधारित राजनीति के कारण देशों के पतन की कहानी बताते हैं: लेबनान और रवांडा। ये उदाहरण भारत में जातीय जनगणना और जाति आधारित राजनीति के खतरों को उजागर करते हैं।
उदाहरण 1: लेबनान का पतन
1943 में, जब लेबनान आज़ाद हुआ, तो वहां की राजनीतिक व्यवस्था “जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व” के सिद्धांत पर आधारित थी।
संसद में 54 सीट मुस्लिमों और 99 सीट ईसाइयों के लिए आरक्षित की गईं।
मुस्लिमों में शिया बहुसंख्यक थे, तो शिया संसद के स्पीकर बनते थे। ईसाइयों में मेरोनाइट बहुसंख्यक थे, तो राष्ट्रपति मेरोनाइट ईसाई बनता था।
लेकिन मुस्लिमों ने चालाकी से फिलिस्तीन से मुस्लिमों को बुलाना शुरू कर दिया, जिससे लेबनान की जनसंख्या संतुलन बिगड़ने लगा। इसका नतीजा गृहयुद्ध के रूप में हुआ।
1989 में जब युद्ध समाप्त हुआ, तो संसद की सीटें बराबर (64-64) बांटी गईं।
धीरे-धीरे ईसाई अल्पसंख्यक हो गए, और लेबनान मुस्लिम-बहुल देश बन गया।
आज, लेबनान में मेरोनाइट ईसाई और शिया लगभग खत्म हो चुके हैं।
उदाहरण 2: रवांडा का जातीय नरसंहार
1918 में बेल्जियम ने रवांडा पर कब्जा कर लिया। वहां तीन प्रमुख जातीय समूह थे:
हुतु (बहुसंख्यक)
तुत्सी (अल्पसंख्यक)
तवा (सबसे कम संख्या)
बेल्जियम ने “जनसंख्या के हिसाब से प्रतिनिधित्व” का सिद्धांत लागू किया और जातीय समूहों को आपस में लड़ाना शुरू कर दिया।
1962 में रवांडा आज़ाद हुआ, लेकिन जातीय संघर्ष जारी रहा।
1973 में, हुतु जाति के नेता जुवेनल हेब्यारिमाना राष्ट्रपति बने।
1994 में, उनके प्लेन क्रैश में मारे जाने के बाद, हुतु समुदाय ने तुत्सी पर आरोप लगाया, और इतिहास के सबसे भयानक गृहयुद्धों में से एक शुरू हो गया।
8 लाख से अधिक लोग मारे गए।
1.5–2.5 लाख महिलाओं का बलात्कार हुआ।
भारत में जातीय गणना के खतरे
अब भारत की स्थिति पर विचार करें:
यहां हिंदू जातियों की जनगणना की बात हो रही है, लेकिन मुस्लिम जातियों की गणना नहीं होगी।
भारत में किसी भी हिंदू जाति की जनसंख्या 20% मुस्लिम आबादी से अधिक नहीं है।
यदि जातीय प्रतिनिधित्व लागू हुआ, तो मुस्लिम (20%) प्रधानमंत्री से लेकर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की कुर्सी तक की मांग कर सकते हैं।
यह कोई कल्पना नहीं है।
1947 से पहले, मुस्लिमों को उनकी आबादी के आधार पर सीटें दी गई थीं, जिसका नतीजा देश के विभाजन के रूप में सामने आया।
यदि हिंदू जातियों में बंटवारा शुरू हुआ, तो लेबनान और रवांडा जैसा संकट आ सकता है:
ब्राह्मण बनाम ओबीसी बनाम दलित बनाम वनवासी।
कांग्रेस और अन्य पार्टियां मुस्लिम वोट बैंक के कारण चुप रहेंगी।
मुस्लिम चुपचाप हिंदुओं को आपस में लड़ते हुए देखेंगे।
क्या हो सकता है? संभावित घटनाक्रम
यदि दलित और ओबीसी मुस्लिमों के साथ मिलकर “जय भीम, जय मीम” के नारे लगाते हैं, तो वे पहले उच्च जातियों को समाप्त करेंगे।
इसके बाद, ओबीसी अगला लक्ष्य बन जाएंगे।
अंततः दलित अकेले मुस्लिमों का सामना करेंगे।
इतिहास इसका गवाह है:
जोगेंद्र नाथ मंडल, एक दलित नेता, ने पाकिस्तान के निर्माण का समर्थन किया। वह पाकिस्तान के पहले कानून मंत्री भी बने।
लेकिन अंततः उन्हें और उनके दलित समुदाय को धोखा दिया गया।
अंत में, सिर्फ मुस्लिम ही हावी रह गए।
इतिहास से सबक
कुछ लोग इसे कल्पना मान सकते हैं। लेकिन अन्य देशों के उदाहरण देखें:
लेबनान में, 1943 में स्थिति बिगड़नी शुरू हुई और 1989 तक देश ईसाइयों के हाथ से निकल गया।
रवांडा में, 1918 में बेल्जियम ने शुरुआत की और 1994 में नरसंहार हुआ।
भारत में, 1925 में कोई नहीं सोचता था कि भारत का विभाजन होगा, लेकिन 1947 में हो गया।
इसी तरह, कश्मीर में 1985 तक सब ठीक था, लेकिन 1990 में हिंदू बेदखल कर दिए गए।
युवाओं के लिए संदेश
यदि हम इन घटनाओं से नहीं सीखे, तो भारत का भविष्य भी यही हो सकता है।
जाति आधारित राजनीति को अस्वीकार करें।
हिंदू एकता बनाए रखें। जातीय विभाजन से केवल दुश्मनों को फायदा होगा।
इतिहास से सीखें—चाहे भारत का हो या अन्य देशों का।
इस संदेश को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाएं। जागरूकता ही एकता की ओर पहला कदम है।
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