जब भी हम भारत के उद्योग जगत के दिग्गजों का जिक्र करते हैं, तो टाटा, बिड़ला और डालमिया जैसे नाम हमारे दिमाग में आते हैं। लेकिन रामकृष्ण डालमिया, जिनका कभी भारतीय उद्योग पर राज था, आज इतिहास के पन्नों में खो गए हैं। आखिर ऐसा क्या हुआ कि एक लाख करोड़ के मालिक डालमिया जी को नेहरू सरकार के षड्यंत्रों के कारण कौड़ी-कौड़ी का मोहताज बनना पड़ा?
डालडा: भारत का पहला वनस्पति घी और डालमिया का साम्राज्य
हिन्दुस्तान लीवर (अब हिंदुस्तान यूनिलीवर) का सबसे लोकप्रिय उत्पाद डालडा भारतीय बाजार में सबसे पहले सेठ रामकृष्ण डालमिया लेकर आए थे।
वे उस दौर के सबसे धनी उद्योगपतियों में से एक थे, जिनका कारोबार समाचारपत्र, बैंक, बीमा, विमान सेवाएं, सीमेंट, वस्त्र उद्योग, खाद्य उत्पाद और सैकड़ों अन्य क्षेत्रों में फैला हुआ था।
उनकी दौलत, प्रभाव और राष्ट्रवादी विचारधारा उन्हें भारत की राजनीति का एक अहम किरदार बनाती थी।
नेहरू और डालमिया के टकराव की जड़ें
रामकृष्ण डालमिया कट्टर सनातनी हिंदू थे और प्रसिद्ध संत स्वामी करपात्री जी महाराज के घनिष्ठ सहयोगी थे।
1948 में ‘राम राज्य परिषद’ नामक राजनीतिक पार्टी बनी, जो 1952 के आम चुनावों में लोकसभा की 18 सीटें जीतकर मुख्य विपक्षी दल बन गई।
इस पार्टी का मुख्य मुद्दा था हिंदू कोड बिल का विरोध और गोहत्या पर प्रतिबंध लगाना।
नेहरू हिंदू कोड बिल को लागू करना चाहते थे, लेकिन डालमिया और करपात्री महाराज इसके खिलाफ थे।
डालमिया ने इस आंदोलन को आर्थिक रूप से समर्थन दिया, जिससे नेहरू उनसे व्यक्तिगत रूप से रुष्ट हो गए।
हिंदू कोड बिल और राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद का विरोध
हिंदू कोड बिल के तहत हिंदू महिलाओं के लिए तलाक की व्यवस्था की गई, जिसका राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद और कई हिंदू संगठनों ने विरोध किया।
राष्ट्रपति ने इस बिल को स्वीकृति देने से इनकार कर दिया, लेकिन नेहरू ने अपनी ज़िद में इसे संसद से दोबारा पारित करवा लिया।
इस घटना के बाद नेहरू ने डालमिया को मिटाने की कसम खा ली।
नेहरू की रणनीति: झूठे आरोप और साजिशें
नेहरू सरकार ने डालमिया के खिलाफ वित्तीय घोटालों के आरोप गढ़े और संसद में उनके खिलाफ अभियान चलाया।
उनकी कंपनियों की जांच के लिए एक आयोग गठित किया गया और फिर मामला CBI (तब स्पेशल पुलिस एस्टैब्लिशमेंट) को सौंपा गया।
हर सरकारी विभाग को निर्देश दिया गया कि डालमिया को परेशान किया जाए।
अदालत में मुकदमे चले और डालमिया को तीन साल की जेल की सजा सुनाई गई।
उन्होंने अपने साम्राज्य के महत्वपूर्ण हिस्से—हिंदुस्तान लीवर, टाइम्स ऑफ इंडिया और कई अन्य उद्योगों—को औने-पौने दामों में बेचना पड़ा।
एक लाख करोड़ की दौलत रखने वाले डालमिया जेल की कालकोठरी में डाल दिए गए।
डालमिया का संकल्प और बलिदान
डालमिया जी ने गौहत्या के विरोध में संकल्प लिया कि जब तक भारत में गोहत्या पर पूर्ण प्रतिबंध नहीं लगेगा, तब तक वे अन्न ग्रहण नहीं करेंगे।
उन्होंने इस व्रत को अपनी अंतिम सांस तक निभाया और 1978 में प्राण त्याग दिए।
नेहरू का षड्यंत्र: विरोधियों को मिटाने की नीति
यह कोई पहली बार नहीं था जब नेहरू ने अपने विरोधियों को राजनीतिक और आर्थिक रूप से बर्बाद किया।
डॉ. राजेंद्र प्रसाद, जिन्होंने हिंदू कोड बिल का विरोध किया, को भी हाशिये पर डाल दिया गया।
सुभाष चंद्र बोस, जो उनकी विचारधारा से अलग थे, को भी उन्होंने अलग-थलग करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
और अब यह स्पष्ट हो गया कि भारत के सबसे बड़े उद्योगपतियों में से एक को भी नेहरू ने मिटा दिया।
सबक और सत्य
रामकृष्ण डालमिया की कहानी हमें यह बताती है कि कैसे राजनीतिक प्रतिशोध के कारण एक राष्ट्रवादी उद्योगपति को बर्बाद कर दिया गया।
अगर डालमिया का उद्योग साम्राज्य चलता रहता, तो शायद आज भारत की अर्थव्यवस्था और भी मजबूत होती।
भारत के उद्योगपतियों और हिंदू राष्ट्रवादियों को यह समझना चाहिए कि सत्ता में बैठी शक्तियाँ कभी-कभी अपनी व्यक्तिगत नफरत के कारण देश के असली सेवकों को खत्म कर सकती हैं।
निष्कर्ष: नेहरूवाद के प्रभाव को समझें
आज जब हम भारत की आर्थिक और सांस्कृतिक विरासत की बात करते हैं, तो यह जरूरी है कि हम इतिहास के उन अध्यायों को समझें जिन्हें जानबूझकर छुपाया गया।
डालमिया जी का बलिदान और नेहरू की नीतियों का काला पक्ष हमें यह सिखाता है कि सत्य को दबाया जा सकता है, लेकिन मिटाया नहीं जा सकता।
यह समय है कि हम अपने इतिहास को सही दृष्टिकोण से देखें और उन राष्ट्रवादी नेताओं और उद्योगपतियों के योगदान को पहचाने जिन्हें षड्यंत्रों में फंसाकर खत्म कर दिया गया।
आइए, इस इतिहास को साझा करें और सच्चाई को हर भारतीय तक पहुंचाएं!
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