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न्याय की त्रासदी क्या सुप्रीम कोर्ट सिर्फ गद्दारों और आतंकियों के लिए है

न्याय की त्रासदी: क्या सुप्रीम कोर्ट सिर्फ गद्दारों और आतंकियों के लिए है?

भारत में न्याय का मतलब सिर्फ कानून और आदेश नहीं, बल्कि निष्पक्षता और विश्वास भी है। लेकिन जब वही सुप्रीम कोर्ट, जो देशवासियों का संरक्षक है, गद्दारों और आतंकियों के पक्ष में खड़ा होता है, तो सवाल उठते हैं — क्या न्याय की परिभाषा बदल गई है?

क्या आपने कभी सोचा है कि…

  • जब देश विरोधी आतंकियों को फाँसी से बचाना होता है,
  • जब टुकड़े-टुकड़े गैंग के कार्यकर्ता जेल में होते हैं,
  • जब देशद्रोही खुली अदालत में “भारत तेरे टुकड़े होंगे” जैसे नारे लगाते हैं,

तब भारत का सर्वोच्च न्यायालय रात 2:00 बजे भी दरवाजे खोल देता है।

लेकिन जब:

मंदिरों की स्वतंत्रता की बात होती है,

समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) की बात होती है,

हिंदू समाज के अधिकारों की बात होती है,

या फिर किसी राष्ट्रहित के मुद्दे की सुनवाई की बात होती है,

तो वर्षों तक केस लटका रहता है!

🔴 तेजी से सुनवाई के उदाहरण (राष्ट्रविरोधियों के लिए):

अफजल गुरु केस (2006–2013):

जब 2001 में संसद पर हमला करने वाले आतंकवादी अफजल गुरु को फांसी की सजा दी गई, तब रात में याचिका दायर की गई और अदालत ने त्वरित सुनवाई की।

एक तरह से न्यायिक प्रक्रिया को “इमोशनल प्रेशर” में लिया गया।

याकूब मेमन फांसी (2015):

  • 1993 मुंबई बम धमाकों का मास्टरमाइंड।
  • उसकी फांसी के एक दिन पहले सुप्रीम कोर्ट रात 3 बजे खुला।

यह क्या संदेश देता है? क्या आतंकी को न्याय देना हिंदू समाज के न्याय से अधिक आवश्यक है?

उमर खालिद और शरजील इमाम जैसे टुकड़ेटुकड़े गैंग:

  • इन पर CAA विरोध और दिल्ली दंगों में भड़काऊ भाषणों का आरोप है।
  • लेकिन इनके जमानत याचिकाओं पर त्वरित सुनवाई, मीडिया में सहानुभूति, और “न्यायिक दया” क्यों?

दूसरी तरफ हिंदू हितों पर लंबित याचिकाएं:

काशी विश्वनाथज्ञानवापी मामला:

मामला स्पष्ट है — मंदिर तोड़ा गया था।

परन्तु वर्षों से केस लंबित है, और कोर्ट बार-बार “status quo” कहकर सुनवाई टालता है।

समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code):

  • भारत के संविधान में इसका वादा किया गया था (अनुच्छेद 44)।
  • लेकिन इसे लागू करने की दिशा में आज तक कोई ठोस कदम नहीं।
  • सुप्रीम कोर्ट भी बार-बार यह कहकर किनारा कर लेता है कि “यह संसद का विषय है।”

हिंदू मंदिरों का सरकारी नियंत्रण:

  • केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक आदि राज्यों में हजारों मंदिरों को सरकार ने अधिग्रहित कर लिया है।
  • सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं दायर हैं, लेकिन कोई सुनवाई नहीं।
  • जब मस्जिद या चर्च की बात हो, तो तुरंत प्रतिक्रिया, लेकिन मंदिरों पर चुप्पी?

📢 यह दोहरा मापदंड क्यों?

  • क्या भारत की सर्वोच्च अदालत का कर्तव्य सिर्फ राष्ट्रविरोधियों को अधिकार दिलाना है?
  • क्या हिंदू समाज को न्याय पाने के लिए मरना पड़ेगा?
  • क्या देश की अस्मिता, इतिहास और संस्कृति को कोई महत्व नहीं?

समाधान क्या है?

  • न्यायिक जवाबदेही तय की जाए।
  • राष्ट्रहित और हिंदू हित के मामलों को ‘Fast Track’ किया जाए।
  • जन आंदोलन और जनमत से सुप्रीम कोर्ट पर नैतिक दबाव बनाया जाए।

न्यायपालिका के भीतर सुधार और पारदर्शिता की मांग की जाए।

यह लड़ाई सिर्फ कोर्ट की नहीं है, यह भारत की आत्मा की लड़ाई है।
अब हिंदू समाज को जागना होगा। उठना होगा। और संगठित होकर न्याय की मांग करनी होगी।

🇳🇪 जय भारत, वन्देमातरम 🇳🇪

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