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अपरिचित इतिहास: हिंदुओं का प्रतिशोध

1946 में जब भारत विभाजन की प्रक्रिया चल रही थी, उस समय कलकत्ता (अब कोलकाता) में एक ऐसा घटनाक्रम हुआ जिसे इतिहास की किताबों में शायद ही कोई पढ़ता है। यह कहानी है गोपाल मुखर्जी, जिन्हें गोपाल पाथा के नाम से जाना जाता है, और उनके साहसिक प्रतिरोध की जिसने इतिहास का रुख बदल दिया।

पृष्ठभूमि: डायरेक्ट एक्शन डे

16 अगस्त 1946 को जिन्ना ने पाकिस्तान की मांग को लेकर “डायरेक्ट एक्शन डे” घोषित किया। इस अभियान के केंद्र के रूप में कलकत्ता को चुना गया क्योंकि यह आर्थिक और रणनीतिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण था।

सुहरावर्दी, जो बंगाल के मुख्यमंत्री और जिन्ना के वफादार थे, को इस योजना को अंजाम देने की जिम्मेदारी दी गई।

उस समय कलकत्ता में 64% हिंदू और 33% मुस्लिम थे, लेकिन सुहरावर्दी ने इसे मुस्लिम गढ़ बनाने का सपना देखा।

इस दिन:

एक हड़ताल का आह्वान किया गया और शुक्रवार की नमाज के बाद मुस्लिम भीड़ हथियारों के साथ हिंदुओं पर हमला करने निकल पड़ी।

हिंदू दुकानों को लूटा गया, हिंदुओं की बेरहमी से हत्या की गई और हिंदू महिलाओं के साथ अत्याचार किया गया।

17 अगस्त तक हजारों हिंदू मारे गए और शहर हिंसा की आग में जल रहा था।

सुहरावर्दी ने मुस्लिम भीड़ को आश्वासन दिया था कि पुलिस उनके रास्ते में नहीं आएगी, जिससे हिंदू पूरी तरह असुरक्षित हो गए।

संकट का मोड़: गोपाल पाथा का उदय

18 अगस्त को जब यह नरसंहार जारी था, तब 33 वर्षीय बंगाली ब्राह्मण गोपाल मुखर्जी ने प्रतिरोध करने का निर्णय लिया।

गोपाल, जो सुभाष चंद्र बोस के अनुयायी और गांधी जी के अहिंसा के सिद्धांतों के आलोचक थे, अपने लोगों की रक्षा के लिए आगे आए।

उन्होंने अपनी स्ट्रीट संगठन भारत जातीय बहिनी को सक्रिय किया, जिसमें 500-700 प्रशिक्षित पहलवान शामिल थे।

एक मारवाड़ी व्यवसायी ने वित्तीय मदद देकर उनकी योजना को मजबूत किया।

उनका संदेश स्पष्ट था: “हर 1 हिंदू के बदले 10 मुसलमानों को मारो।”
लेकिन गोपाल ने सख्त निर्देश दिए कि वे महिलाओं और बच्चों को नुकसान नहीं पहुंचाएंगे।

संघर्ष की शुरुआत

18 अगस्त की दोपहर से गोपाल और उनकी टीम ने पलटवार शुरू किया:

उन्होंने हिंदू कॉलोनियों को सुरक्षित किया और हमला करने वाली हर मुस्लिम भीड़ को समाप्त कर दिया।

19 अगस्त तक हिंदू इलाकों को सुरक्षित कर लिया गया, और अब गोपाल की टीम ने प्रतिशोध का अभियान शुरू किया।


यह बात जंगल की आग की तरह फैल गई और भारत की अधिक आध्यात्मिकता spirituality of india प्रतिरोध में शामिल हो गई। 21 अगस्त तक, गोपाल के नेतृत्व में हिंदू सेनाओं ने बड़े पैमाने पर जवाबी कार्रवाई शुरू की:

अब तक जो मुस्लिम भीड़ हावी थी, वह खुद भागने पर मजबूर हो गई।

सुहरावर्दी को समझ में आ गया कि उन्होंने हिंदुओं की ताकत को कमतर आंका था।

हिंदुओं का प्रतिशोध

20 अगस्त से गोपाल की टीम ने उन सभी मुस्लिम आतंकवादियों को निशाना बनाना शुरू किया जिन्होंने 16 और 17 अगस्त को हिंदुओं की हत्या की थी।

22 अगस्त तक स्थिति पूरी तरह बदल चुकी थी। अब मुस्लिम मारे जा रहे थे और वे कलकत्ता छोड़कर भाग रहे थे।

सुहरावर्दी ने कांग्रेस नेताओं से गोपाल को रोकने की गुहार लगाई। गोपाल केवल इस शर्त पर सहमत हुए कि सभी मुस्लिम अपने हथियार उन्हें सौंप देंगे।

जिन्ना का कलकत्ता कब्जाने का सपना टूट गया। भगवा ध्वज फिर से कलकत्ता में लहरा रहा था।

अंतिम परिणाम

शांति स्थापित होने के बाद भी गोपाल ने अपनी टीम को भंग नहीं किया और बंगाल में हिंदुओं की रक्षा करते रहे।
जब महात्मा गांधी ने उनसे मुलाकात की और अहिंसा के नाम पर अपने हथियार surrender करने को कहा, तो गोपाल ने जवाब दिया:

“इन हथियारों से मैंने महिलाओं और बच्चों की रक्षा की। गांधीजी उस समय कहां थे जब नरसंहार हो रहा था? मैंने जिस नाखून से भी किसी को मारा हो, मैं उसे भी नहीं दूंगा।”

विरासत और उपेक्षा

गोपाल पाथा का नाम इतिहास की किताबों से इसलिए हटा दिया गया क्योंकि उन्होंने गांधी जी के सिद्धांतों का पालन नहीं किया।
लेकिन सच्चाई यह है कि कलकत्ता को भारत का हिस्सा बनाए रखने में गोपाल पाथा का सबसे बड़ा योगदान था।

युवाओं के लिए संदेश

गोपाल पाथा को याद रखें।
वे कठिन समय में साहस और दृढ़ता का प्रतीक थे। उनकी कहानी हमें यह सिखाती है कि अपने अधिकारों और लोगों की रक्षा के लिए खड़े होना कितना महत्वपूर्ण है।

एकता और साहस किसी भी परिस्थिति को बदल सकते हैं, चाहे विरोध कितना भी बड़ा क्यों न हो।

गोपाल की विरासत हमें हमारे उन गुमनाम नायकों को सम्मान देने के लिए प्रेरित करती है जिन्होंने हमारे धर्म और राष्ट्र की रक्षा की।

आइए हम यह सुनिश्चित करें कि गोपाल पाथा का नाम और उनका साहस आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करता रहे।

जय हिंद! जय भारत!

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